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प्र यद्रथे॑षु॒ पृष॑ती॒रयु॑ग्ध्वं॒ वाजे॒ अद्रिं॑ मरुतो रं॒हय॑न्तः। उ॒तारु॒षस्य॒ वि ष्य॑न्ति॒ धारा॒श्चर्मे॑वो॒दभि॒र्व्यु॑न्दन्ति॒ भूम॑ ॥

English Transliteration

pra yad ratheṣu pṛṣatīr ayugdhvaṁ vāje adrim maruto raṁhayantaḥ | utāruṣasya vi ṣyanti dhārāś carmevodabhir vy undanti bhūma ||

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Pad Path

प्र। यत्। रथे॑षु। पृष॑तीः। अयु॑ग्ध्वम्। वाजे॑। अद्रि॑म्। म॒रु॒तः॒। रं॒हय॑न्तः। उ॒त। अ॒रु॒षस्य॑। वि। स्य॒न्ति॒। धाराः॑। चर्म॑ऽइव। उ॒दऽभिः॑। वि। उ॒न्दन्ति॑। भूम॑ ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:85» Mantra:5 | Ashtak:1» Adhyay:6» Varga:9» Mantra:5 | Mandal:1» Anuvak:14» Mantra:5


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वे कैसे करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

Word-Meaning: - हे मनुष्यो ! तुम जैसे विद्वान् शिल्पी लोग (यत्) जिन (रथेषु) विमानादि यानों में (पृषतीः) अग्नि और पवनयुक्त जलों को (प्रयुग्ध्वम्) संयुक्त करें (उत) और (अद्रिम्) मेघ को (रंहयन्तः) अपने वेग से चलाते हुए (मरुतः) पवन जैसे (अरुषस्य) घोड़े के समान (वाजे) युद्ध में (चर्मेव) चमड़े के तुल्य काष्ठ धातु और चमड़े से भी मढ़े कलाघरों में (उद्भिः) जलों से (धाराः) उनके प्रवाहों को (विष्यन्ति) काम की समाप्ति करने के लिये समर्थ करते और (भूम) भूमि को (व्युन्दन्ति) गीली करते अर्थात् रथ को चलाते हुए जल टपकाते जाते हैं, वैसे उन यानों से अन्तरिक्ष मार्ग से देश-देशान्तर और द्वीप-द्वीपान्तर में जा-आ के लक्ष्मी को बढ़ाओ ॥ ५ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यो ! जैसे वायु बादलों को संयुक्त करता और चलाता है, वैसे शिल्पि लोग उत्तम शिक्षा और हस्तक्रिया अग्नि आदि अच्छे प्रकार जाने हुए वेगकर्त्ता पदार्थों के योग से स्थानान्तर को प्राप्त हो के कार्यों को सिद्ध करते हैं ॥ ५ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्ते किं कुर्युरित्युपदिश्यते ॥

Anvay:

हे मनुष्या ! यूयं यथा विद्वांसः शिल्पिनो यद्येषु रथेषु पृषतीः प्रयुग्ध्वं संप्रयुग्ध्वमुताद्रिं रंहयन्तो मरुतोऽरुषस्य वाजे चर्मेवोद्भिर्धारा विष्यन्ति भूम भूमिं व्युन्दन्ति तैरन्तरिक्षे गत्वागत्य श्रियं वर्द्धयत ॥ ५ ॥

Word-Meaning: - (प्र) प्रकृष्टार्थे (यत्) येषु (रथेषु) विमानादियानेषु (पृषतीः) अग्निवायुयुक्ता अपः (अयुग्ध्वम्) संप्रयुग्ध्वम् (वाजे) युद्धे (अद्रिम्) मेघम्। अद्रिरिति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१०) (मरुतः) वायवः (रंहयन्तः) गमयन्तः (उत) अपि (अरुषस्य) अश्वस्येव। अरुष इति अश्वनामसु पठितम्। (निघं०१.१४) (वि) विशेषार्थे (स्यन्ति) कार्याणि समापयति (धाराः) जलप्रवाहान् (चर्मेव) चर्मवत् काष्ठादिनाऽऽवृत्य (उदभिः) उदकैः (वि) (उन्दन्ति) क्लेदन्ति (भूम) भूमिम्। अत्र सुपां सुलुगिति सुप्लुगिकारस्य स्थानेऽकारश्च ॥ ५ ॥
Connotation: - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। हे मनुष्या ! यथा वायुर्घनान् संधत्ते गमयति तथा शिल्पिनः सुशिक्षयाऽग्न्यादेः संप्रयोगेण स्थानान्तरं प्रापय्य कार्याणि साध्नुवन्ति ॥ ५ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. हे माणसांनो! जसे वायू मेघांना संयुक्त करतो व चालवितो तसे शिल्पी लोक (कारागीर) उत्तम शिक्षण व हस्तक्रिया, अग्नी इत्यादींना चांगल्या प्रकारे जाणून वेगवान पदार्थांच्या योगाने स्थानांतर करतात व कार्य सिद्ध करतात. ॥ ५ ॥