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आदङ्गि॑राः प्रथ॒मं द॑धिरे॒ वय॑ इ॒द्धाग्न॑यः॒ शम्या॒ ये सु॑कृ॒त्यया॑। सर्वं॑ प॒णेः सम॑विन्दन्त॒ भोज॑न॒मश्वा॑वन्तं॒ गोम॑न्त॒मा प॒शुं नरः॑ ॥

English Transliteration

ād aṅgirāḥ prathamaṁ dadhire vaya iddhāgnayaḥ śamyā ye sukṛtyayā | sarvam paṇeḥ sam avindanta bhojanam aśvāvantaṁ gomantam ā paśuṁ naraḥ ||

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Pad Path

आत्। अङ्गि॑राः। प्र॒थ॒मम्। द॒धि॒रे॒। वयः॑। इ॒द्धऽअ॑ग्नयः। शम्या॑। ये। सु॒ऽकृ॒त्यया॑। सर्व॑म्। प॒णेः। सम्। अ॒वि॒न्द॒न्त॒। भोज॑नम्। अश्व॑ऽवन्तम्। गोऽम॑न्तम्। आ। प॒शुम्। नरः॑ ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:83» Mantra:4 | Ashtak:1» Adhyay:6» Varga:4» Mantra:4 | Mandal:1» Anuvak:13» Mantra:4


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वे कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

Word-Meaning: - हे (इद्धाग्नयः) अग्निविद्या को प्रदीप्त करनेहारे (ये) (नरः) नायक मनुष्यो ! आप जैसे (सुकृत्यया) सुकृतयुक्त (शम्या) कर्म और (पणेः) प्रशंसनीय व्यवहार करनेवाले के उपदेश से (प्रथमम्) पहिले (वयः) उमर को ब्रह्मचर्य के लिये (आदधिरे) सब प्रकार से धारण करते हैं वे (सर्वम्) सब (भोजनम्) आनन्द को भोग और पालन को (समविन्दन्त) अच्छे प्रकार प्राप्त होते हैं (आत्) इससे अनन्तर जैसे (अङ्गिराः) प्राणवत् प्रिय बछड़ा (पशुम्) अपनी माता को प्राप्त होके आनन्दित होता है, वैसे आप (अश्वावन्तम्) उत्तम घोड़ों से युक्त (गोमन्तम्) श्रेष्ठ गाय और भूमि आदि से सहित राज्य को प्राप्त होके आनन्दित हूजिये ॥ ४ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। कोई भी मनुष्य ब्रह्मचर्य से विद्या पढ़े विना साङ्गोपाङ्ग विद्याओं को प्राप्त होने को समर्थ नहीं हो सकते और विद्या सत्कर्म के विना राज्याधिकार को प्राप्त होने योग्य नहीं होते, उक्त प्रकार से रहित मनुष्य सत्य सुख को प्राप्त नहीं हो सकते ॥ ४ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥

Anvay:

हे इद्धाग्नयो ये नरो मनुष्या यथा सुकृत्यया शम्या पणेः प्रथमं वयो ब्रह्मचर्यार्थमादधिरे सर्वतो दधति ते सर्वं भोजनं समविन्दन्त प्राप्नुवन्त्वाद्यथाऽङ्गिराः अश्वावन्तं गोमन्तं राज्यं प्राप्यानन्दितः पशुं लब्ध्वानन्दी भवति तथा भवन्तु ॥ ४ ॥

Word-Meaning: - (आत्) अनन्तरम् (अङ्गिराः) प्राण इव प्रियो वत्सः। अङ्गिरस इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.५) (प्रथमम्) आदिमं ब्रह्मचर्यार्थम् (दधिरे) दधति (वयः) जीवनम् (इद्धाग्नयः) इद्धाः प्रदीप्ता मानसबाह्याग्नयो यैस्ते (शम्या) शान्तियुक्तक्रियया। शमीति कर्मनामसु पठितम्। (निघं०२.१) (ये) (सुकृत्यया) शोभनानि कृत्यानि कर्माणि यस्यां तया (सर्वम्) अखिलम् (पणेः) स्तुत्यस्य व्यवहारस्य (सम्) सम्यक् (अविन्दन्त) विन्दन्ते प्राप्नुवन्ति (भोजनम्) पालनं भोग्यमानन्दं वा (अश्वावन्तम्) प्रशस्ता अश्वा विद्यन्ते यस्मिंस्तम् (गोमन्तम्) बह्व्यो गावः सन्त्यस्मिंस्तम् (आ) समन्तात् (पशुम्) स्वमातरम् (नरः) नेतारः ॥ ४ ॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। केचिदपि मनुष्या ब्रह्मचर्यसेवनेन विना साङ्गोपाङ्गविद्याः प्राप्तुं न शक्नुवन्ति, विद्याशक्तिभ्यां विना राज्याऽधिकारं लब्धुं नार्हन्ति, न चैतद्विरहा जनाः सत्यानि सुखानि प्राप्तुमर्हन्ति ॥ ४ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. कोणतीही माणसे ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्या शिकल्याशिवाय सांगोपांग विद्या प्राप्त करण्यास समर्थ होऊ शकत नाहीत व विद्या सत्कर्माशिवाय राज्याधिकार प्राप्त करण्यायोग्य बनू शकत नाहीत. याविरुद्ध असणारी माणसे सत्य सुख प्राप्त करू शकत नाहीत. ॥ ४ ॥