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यः स्नीहि॑तीषु पू॒र्व्यः सं॑जग्मा॒नासु॑ कृ॒ष्टिषु॑। अर॑क्षद्दा॒शुषे॒ गय॑म् ॥

English Transliteration

yaḥ snīhitīṣu pūrvyaḥ saṁjagmānāsu kṛṣṭiṣu | arakṣad dāśuṣe gayam ||

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Pad Path

यः। स्नीहि॑तीषु। पू॒र्व्यः। स॒म्ऽज॒ग्मा॒नासु॑। कृ॒ष्टिषु॑। अर॑क्षत्। दा॒शुषे॑। गय॑म् ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:74» Mantra:2 | Ashtak:1» Adhyay:5» Varga:21» Mantra:2 | Mandal:1» Anuvak:13» Mantra:2


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वह परमेश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

Word-Meaning: - हे मनुष्यो ! जो (पूर्व्यः) पूर्वज विद्वान् लोगों से साक्षात्कार किया हुआ जगदीश्वर (संजग्मानासु) एक-दूसरे के सङ्ग चलती हुई (स्नीहितीषु) स्नेह करनेवाली (कृष्टिषु) मनुष्य आदि प्रजा में (दाशुषे) विद्यादि शुभ गुण देनेवाले के लिये (गयम्) धन की (अरक्षत्) रक्षा करता है, उस (अग्नये) ईश्वर के लिये (अध्वरम्) हिंसारहित (मन्त्रम्) विचार को हम लोग (वोचेम) कहें, वैसे तुम भी कहा करो ॥ २ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। पूर्व मन्त्र से (अग्नये) (अध्वरम्) (मन्त्रम्) (वोचेम) इन चार पदों की अनुवृत्ति आती है। प्रजा में रहनेवाले किसी जीव का परमेश्वर के विना रक्षण और सुख नहीं हो सकता, इससे सब मनुष्यों को उचित है कि इसका सेवन सर्वदा करें ॥ २ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

Anvay:

हे मनुष्या ! यः पूर्व्यो जगदीश्वरः संजग्मानासु स्नीहितीषु कृष्टिषु दाशुषे गयमरक्षत् तस्मा अग्नयेऽध्वरं मन्त्रं यथा वयं वोचेम तथा यूयमपि वदत ॥ २ ॥

Word-Meaning: - (यः) जगदीश्वरः (स्नीहितीषु) स्नेहकारिणीषु। अत्रान्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (पूर्व्यः) पूर्वैः साक्षात्कृतः (संजग्मानासु) सङ्गच्छन्तीषु (कृष्टिषु) मनुष्यादिप्रजासु (अरक्षत्) रक्षति (दाशुषे) विद्यादिशुभगुणानां दात्रे (गयम्) धनम्। गयमिति धननामसु पठितम्। (निघं०२.१०) ॥ २ ॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। पुरस्तात् (अग्नये) (अध्वरम्) (मन्त्रम्) (वोचेम) इति पदचतुष्टयमत्रानुवर्त्तते, नहि कस्यापि प्रजास्थस्य जीवस्य परमेश्वरेण विना यथावद्रक्षणं सुखं च जायते तस्मादयं सर्वैस्सदा सेवनीयः ॥ २ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. पूर्वीच्या मंत्रातील (अग्नये) (अध्वरम्) (मन्त्रम्) (वोचेम) या चार पदांची अनुवृत्ती होते. परमेश्वराशिवाय प्रजेमधील कोणत्याही जीवाचे रक्षण होऊ शकत नाही व सुखही प्राप्त होऊ शकत नाही. त्यासाठी सर्व माणसांनी त्याचे सदैव ग्रहण करावे. ॥ २ ॥