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अरा॑धि॒ होता॒ स्व१॒॑र्निष॑त्तः कृ॒ण्वन्विश्वा॒न्यपां॑सि स॒त्या ॥

English Transliteration

arādhi hotā svar niṣattaḥ kṛṇvan viśvāny apāṁsi satyā ||

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Pad Path

अरा॑धि। होता॑। स्वः॑। निऽस॑त्तः। कृ॒ण्वन्। विश्वा॑नि। अपां॑सि। स॒त्या ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:70» Mantra:8 | Ashtak:1» Adhyay:5» Varga:14» Mantra:8 | Mandal:1» Anuvak:12» Mantra:8


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वह मनुष्य कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

Word-Meaning: - मनुष्यों को चाहिये कि जो (अराधि) सिद्ध हुआ वा (यम्) जिस परमेश्वर तथा जीव को (पूर्वीः) सनातन (क्षपः) शान्तियुक्त रात्रि (विरूपाः) नाना प्रकार के रूपों से युक्त प्रजा (वर्धान्) बढ़ाती हैं, जिसने (स्थातुः) स्थित जगत् के (ऋतप्रवीतम्) सत्य कारण से उत्पन्न वा जल से चलाये हुए (रथम्) रमण करने योग्य संसार वा यान को बनाया, जो (स्वः) सुखस्वरूप वा सुख करनेहारा (निषत्तः) निरन्तर स्थित (होता) ग्रहण करने वा देनेवाला (विश्वानि) सब (सत्या) सत्य धर्म से शुद्ध हुए (अपांसि) कर्मों को (कृण्वन्) करता हुआ वर्त्तता है, उसको जाने वा सत्सङ्ग करे ॥ ४ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को उचित है कि जिस परमेश्वर का ज्ञान करानेवाली यह सब प्रजा है वा जिसको जानना चाहिये, जिसके उत्पन्न करने के विना किसी की उत्पत्ति का सम्भव नहीं होता, जिसके पुरुषार्थ के विना कुछ भी सुख प्राप्त नहीं हो सकता और जो सत्यमानी, सत्यकारी, सत्यवादी हो, उसी का सदा सेवन करें ॥ ४ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

Anvay:

मनुष्यैर्योऽराधि यं परमेश्वरं जीवं वा पूर्वीः क्षपो विरूपाः प्रजावर्धान् यः स्थातुर्ऋतप्रवीतं रथः निर्मितवान् यः स्वर्निषत्तो होता विश्वानि सत्यान्यपांसि कृण्वन् वर्त्तते स सदा ज्ञातव्यः सङ्गमनीयश्च ॥ ४ ॥

Word-Meaning: - (वर्धान्) वर्धयेयुः। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम्। लेट्प्रयोगोऽयम्। (यम्) परमेश्वरं जीवं वा (पूर्वीः) सनातन्यः (क्षपः) क्षान्ता रात्रीः (विश्वरूपाः) विविधानि रूपाणि यासान्ताः (स्थातुः) तिष्ठतो जगतः (च) समुच्चये (रथम्) रमणीयस्वरूपं संसारम् (ऋतप्रवीतम्) ऋतात्सत्यात्कारणात्प्रकृष्टतया जनितमुदकेन चालितं वा (अराधि) संसाध्यते (होता) ग्रहीता दाता वा (स्वः) सुखस्वरूपः सुखकारको वा (निषत्तः) नितरामवस्थितः (कृण्वन्) कुर्वन् (विश्वानि) अखिलानि (अपांसि) कर्माणि (सत्या) सत्याधर्मोज्ज्वलितानि ॥ ४ ॥
Connotation: - अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैर्यस्य परमेश्वरस्य ज्ञापिका इमाः सर्वाः प्रजा वर्त्तन्ते, येन जीवेन ज्ञातव्याश्च, नैव यस्योत्पादनेन विना कस्याप्युत्पत्तिः सम्भवति, यस्य पुरुषार्थेन विना किञ्चित् सुखं प्राप्तुं न शक्नोति। यः सत्यमानी सत्यकारी सत्यवादी स सर्वैः सेवनीयः ॥ ४ ॥