Go To Mantra

त्मना॒ वह॑न्तो॒ दुरो॒ व्यृ॑ण्व॒न्नव॑न्त॒ विश्वे॒ स्व१॒॑र्दृशी॑के ॥

English Transliteration

tmanā vahanto duro vy ṛṇvan navanta viśve svar dṛśīke ||

Mantra Audio
Pad Path

त्मना॑। वह॑न्तः। दुरः॑। वि। ऋ॒ण्व॒न्। नव॑न्त। विश्वे॑। स्वः॑। दृशी॑के ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:69» Mantra:10 | Ashtak:1» Adhyay:5» Varga:13» Mantra:10 | Mandal:1» Anuvak:12» Mantra:10


Reads times

SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वह विद्वान् कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

Word-Meaning: - जो (उषः) प्रातःकाल के (न) समान (जारः) दुःख का नाश करनेवाला (उस्रः) किरणों के समान (संज्ञातरूपः) अच्छी प्रकार रूप जानने (विभावा) सब प्रकाश करनेवाला है, उसको मनुष्य (चिकेतत्) जाने (अस्मै) उस ईश्वर वा विद्वान् के लिये सब कुछ उत्तम पदार्थ समर्पण करे। हे मनुष्यो ! जैसे इस प्रकार करते हुए (विश्वे) सब विद्वान् लोग (त्मना) आत्मा से (स्वः) सुख प्राप्त करनेवाले विद्यासमूह को (वहन्तः) प्राप्त होते हुए (दृशीके) देखने योग्य व्यवहार में (दुरः) शत्रुओं को (व्यृण्वन्) मारते तथा सज्जनों की प्रशंसा करते हैं, वैसे तुम भी शत्रुओं को मारो तथा (नवन्त) सज्जनों की स्तुति करो ॥ ५ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में श्लेष, उपमा और लुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यो को चाहिये कि जो सूर्य्य के समान विद्या का प्रकाशक, अग्नि के समान सब दुःखों को भस्म करनेवाला परमेश्वर वा विद्वान् है, उसको अपने आत्मा से आश्रय कर दुष्ट व्यवहारों को त्याग और सत्य व्यवहारों में स्थित होकर सदा सुख को प्राप्त हों ॥ ५ ॥ इस सूक्त में विद्वान् बिजुली और ईश्वर के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्तार्थ की पूर्वसूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥
Reads times

SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

Anvay:

य उषो न जार उस्र इव संज्ञातरूपो विभावास्ति तं मनुष्यश्चिकेतज्जानीयादस्मै सर्वं समर्पयतु। हे मनुष्या ! यथैवं कुर्वन्तो विश्वे विद्वांसस्त्मना स्वर्वन्तो दृशीके व्यवहारे दुरो व्यृण्वन् हिंसन्ति सन्नुवन्ति तथैव यूयं सदैतत्कुरुत तं सदा नवन्त ॥ ५ ॥

Word-Meaning: - (उषः) प्रत्यूषकालस्य (न) इव (जारः) दुःखहन्ता सविता (विभावा) यः सर्वं विभातीति सः (उस्रः) रश्मिरिव (संज्ञातरूपः) सम्यग्ज्ञातं रूपं येन सः (चिकेतत्) जानीयात् (अस्मै) विदुषे (त्मना) आत्मना जीवेन (वहन्तः) उपदेशेन प्राप्नुवन्तः (दुरः) दुष्टान् (वि) विशेषे (ऋण्वन्) हिंसन् (नवन्त) प्रशंसत (विश्वे) सर्वे धार्मिका मनुष्याः (स्वः) सुखप्रापकम् (दृशीके) द्रष्टव्ये ज्ञानव्यवहारे ॥ ५ ॥
Connotation: - अत्र श्लेषोपमालुप्तोपमालङ्काराः। मनुष्यैर्यः सूर्यवत् सर्वविद्याप्रकाशकोऽग्निवत्सर्वदुःखदाहकः परमेश्वरो विद्वान् वास्ति तमात्मनाऽश्रित्य दुष्टव्यवहारांस्त्यक्त्वा सत्येषु व्यवहारेषु सुखं सदा प्राप्तव्यम् ॥ ५ ॥ अत्र विद्वद्विद्युदीश्वरगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥