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तपु॑र्जम्भो॒ वन॒ आ वात॑चोदितो यू॒थे न सा॒ह्वाँ अव॑ वाति॒ वंस॑गः। अ॒भि॒व्रज॒न्नक्षि॑तं॒ पाज॑सा॒ रजः॑ स्था॒तुश्च॒रथं॑ भयते पत॒त्रिणः॑ ॥

English Transliteration

tapurjambho vana ā vātacodito yūthe na sāhvām̐ ava vāti vaṁsagaḥ | abhivrajann akṣitam pājasā rajaḥ sthātuś caratham bhayate patatriṇaḥ ||

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Pad Path

तपुः॑ऽजम्भः। वने॑। आ। वात॑ऽचोदितः। यू॒थे। न। सा॒ह्वान्। अव॑। वा॒ति॒। वंस॑गः। अ॒भि॒ऽव्रज॑न्। अक्षि॑तम्। पाज॑सा। रजः॑। स्था॒तुः। च॒रथ॑म्। भ॒य॒ते॒। प॒त॒त्रिणः॑ ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:58» Mantra:5 | Ashtak:1» Adhyay:4» Varga:23» Mantra:5 | Mandal:1» Anuvak:11» Mantra:5


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वह कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

Word-Meaning: - हे मनुष्य लोगो ! जो (वंसगः) भिन्न-भिन्न पदार्थों को प्राप्त होता (वातचोदितः) प्राणों से प्रेरित (तपुर्जम्भः) जिस का मुख के समान प्रताप, वह जीव अग्नि के सदृश जैसे (यूथम्) सेना में (साह्वान्) सहनशील जीव (अववाति) सब शरीर की चेष्टा कराता है, जो विस्तृत होके दुःखों का हनन करता जो (अभिव्रजन्) जाता-आता हुआ (चरथम्) चरनेहारे (अक्षितम्) क्षयरहित (रजः) कारण के सहित लोकसमूह को (पाजसा) बल से धरता जो (स्थातुः) स्थिर वृक्ष में बैठे हुए (पतत्रिणः) पक्षी के समान (भयते) भय करता है, सो तुम्हारा आत्मस्वरूप है, इस प्रकार तुम लोग जानो ॥ ५ ॥
Connotation: - मनुष्यों को योग्य है कि जो अन्तःकरण अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त और अहङ्कार, प्राण अर्थात् प्राणादि दशवायु इन्द्रिय अर्थात् श्रोत्रादि दश इन्द्रियों का प्रेरक, इन का धारक और नियन्ता, स्वामी, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख और ज्ञान आदि गुणवाला है, वह इस देह में जीव है, ऐसा निश्चित जानो ॥ ५ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

Anvay:

हे मनुष्या ! यो वंसगो वातचोदितस्तपुर्जम्भोऽग्निरिव जीवो यूथे साह्वानाववाति विस्तृतो भूत्वा हिनस्ति योऽभिव्रजन् चरथमक्षितं रजः पाजसा धरति स्थातुस्तिष्ठतो वृक्षादेर्मध्ये पतत्रिण इव भयते तद्युष्माकमात्मस्वरूपमस्तीति विजानीत ॥ ५ ॥

Word-Meaning: - (तपुर्जम्भः) तपूंषि तापा जम्भो वक्रमिव यस्य सः (वने) रश्मौ (आ) समन्तात् (वातचोदितः) वायुना प्रेरितः (यूथे) सैन्ये (न) इव (साह्वान्) सहनशीलो वीरः (अव) विनिग्रहे (वाति) गच्छति (वंसगः) यो वंसान् सम्भक्तान् पदार्थान् गच्छति प्राप्नोति सः (अभिव्रजन्) अभितः सर्वतो गच्छन् (अक्षितम्) क्षयरहितम् (पाजसा) बलेन। पाज इति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) (रजः) सकारणं लोकसमूहम् (स्थातुः) कृतस्थितेः (चरथम्) चर्यते गम्यते भक्ष्यते यस्तम् (भयते) भयं जनयति। अत्र व्यत्ययेन बहुलं छन्दसि इति शपो लुक् आत्मनेपदञ्च (पतत्रिणः) पक्षिणः ॥ ५ ॥
Connotation: - मनुष्यैर्योऽन्तःकरणप्राणेन्द्रियशरीरप्रेरकः सर्वेषामेतेषां धर्त्ता नियन्ताऽधिष्ठातेच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानादिगुणोऽस्ति सोऽत्र देहे जीवोऽस्तीति वेद्यम् ॥ ५ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - माणसांनी जो अंतःकरण (अर्थात) मन, बुद्धी, चित्त, अहंकार, प्राण अर्थात प्राण इत्यादी दहा वायू अर्थात श्रोत्र इत्यादी दहा इंद्रियांचा प्रेरक, त्यांचे धारण व नियंता स्वामी, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख व ज्ञान इत्यादी गुणयुक्त असतो तो या देहात जीव आहे, हे निश्चित जाणा. ॥ ५ ॥