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आ स्वमद्म॑ यु॒वमा॑नो अ॒जर॑स्तृ॒ष्व॑वि॒ष्यन्न॑त॒सेषु॑ तिष्ठति। अत्यो॒ न पृ॒ष्ठं प्रु॑षि॒तस्य॑ रोचते दि॒वो न सानु॑ स्त॒नय॑न्नचिक्रदत् ॥

English Transliteration

ā svam adma yuvamāno ajaras tṛṣv aviṣyann ataseṣu tiṣṭhati | atyo na pṛṣṭham pruṣitasya rocate divo na sānu stanayann acikradat ||

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Pad Path

आ। स्वम्। अद्म॑। यु॒वमा॑नः। अ॒जरः॑। तृ॒षु। अ॒वि॒ष्यन्। अ॒त॒सेषु॑। ति॒ष्ठ॒ति॒। अत्यः॑। न। पृ॒ष्ठम्। प्रु॒षि॒तस्य॑। रो॒च॒ते॒। दि॒वः। न। सानु॑। स्त॒नय॑न्। अ॒चि॒क्र॒द॒त् ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:58» Mantra:2 | Ashtak:1» Adhyay:4» Varga:23» Mantra:2 | Mandal:1» Anuvak:11» Mantra:2


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वह कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

Word-Meaning: - हे मनुष्यो ! तुम जो (युवमानः) संयोग और विभागकर्त्ता (अजरः) जरादि रोगरहित देह आदि की (अविष्यन्) रक्षा करनेवाला होता हुआ (अतसेषु) आकाशादि पदार्थों में (तिष्ठति) स्थित होता (प्रुषितस्य) पूर्ण परमात्मा में कार्य्य का सेवन करता हुआ (न) जैसे (अत्यः) घोड़ा (पृष्ठम्) अपनी पीठ पर भार को बहाता है, वैसे देहादि को बहाता है (न) जैसे (दिवः) प्रकाश से (सानु) पर्वत के शिखर वा मेघ की घटा प्रकाशित होती है, वैसे (रोचते) प्रकाशमान होता है, जैसे (स्तनयन्) बिजुली शब्द करती है, वैसे (अचिक्रदत्) सर्वथा शब्द करता है, जो (स्वम्) अपने किये (अद्म) भोक्तव्य कर्म को (तृषु) शीघ्र (आ) सब प्रकार से भोगता है, वह देह का धारण करनेवाला जीव है ॥ २ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो पूर्ण ईश्वर ने धारण किया, आकाशादि तत्त्वों में प्रयत्नकर्त्ता, सब बुद्धि आदि का प्रकाशक, ईश्वर के न्याय-नियम से अपने किये शुभाशुभ कर्म के सुखदुःखरूप फल को भोगता है, सो इस शरीर में स्वतन्त्रकर्ता भोक्ता जीव है, ऐसा सब मनुष्य जानें ॥ २ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

Anvay:

हे मनुष्याः ! यूयं यो युवमानोऽजरो देहादिकमविष्यन्नतसेषु तिष्ठति प्रुषितस्य पूर्णस्य मध्ये स्थितः सन् पृष्ठमत्यो न देहादि वहति सानु दिवो न रोचते विद्युत् स्तनयन्निवाचिक्रदत् स्वमद्म तृष्वाभुङ्क्ते स देही जीव इति मन्तव्यम् ॥ २ ॥

Word-Meaning: - (आ) समन्तात् (स्वम्) स्वकीयम् (अद्म) अत्तुमर्हं कर्मफलम् (युवमानः) संयोजको भेदकश्च। अत्र विकरणव्यत्ययेन श आत्मनेपदं च। (अजरः) स्वस्वरूपेण जीर्णावस्थारहितः (तृषु) शीघ्रम्। तृष्विति क्षिप्रनामसु पठितम्। (निघं०२.१५) (अविष्यन्) रक्षणादिकं करिष्यन् (अतसेषु) विस्तृतेष्वाकाशपवनादिषु पदार्थेषु (तिष्ठति) वर्त्तते (अत्यः) अश्वः (न) इव (पृष्ठम्) पृष्ठभागम् (प्रुषितस्य) स्निग्धस्य मध्ये (रोचते) प्रकाशते (दिवः) सूर्य्यप्रकाशात् (न) इव (सानु) मेघस्य शिखरः (स्तनयन्) शब्दयन् (अचिक्रदत्) विकलयति ॥ २ ॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यः पूर्णेनेश्वरेण धृत आकाशादिषु प्रयतते सर्वान् बुध्यादीन् प्रकाशते ईश्वरनियोगेन स्वकृतस्य शुभाशुभाचरितस्य कर्मणः सुखदुःखात्मकं फलं भुङ्क्ते, सोऽत्र शरीरे स्वतन्त्रकर्त्ता भोक्ता जीवोऽस्तीति मनुष्यैर्वेदितव्यम् ॥ २ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो पूर्ण ईश्वराकडून धारण केलेल्या आकाश इत्यादी तत्त्वात प्रयत्नकर्ता, सर्वांच्या बुद्धीचा प्रकाशक असलेल्या ईश्वराच्या न्यायनियमानुसार आपल्या केलेल्या शुभाशुभ कर्माचे सुखदुःखस्वरूप फळ भोगतो त्यामुळे शरीरात स्वतंत्रकर्ता भोक्ता जीव आहे हे सर्व माणसांनी जाणावे. ॥ २ ॥