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प्र मंहि॑ष्ठाय बृह॒ते बृ॒हद्र॑ये स॒त्यशु॑ष्माय त॒वसे॑ म॒तिं भ॑रे। अ॒पामि॑व प्रव॒णे यस्य॑ दु॒र्धरं॒ राधो॑ वि॒श्वायु॒ शव॑से॒ अपा॑वृतम् ॥

English Transliteration

pra maṁhiṣṭhāya bṛhate bṛhadraye satyaśuṣmāya tavase matim bhare | apām iva pravaṇe yasya durdharaṁ rādho viśvāyu śavase apāvṛtam ||

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Pad Path

प्र। मंहि॑ष्ठाय। बृ॒ह॒ते। बृ॒हत्ऽर॑ये। स॒त्यऽशु॑ष्माय। त॒वसे॑। म॒तिम्। भ॒रे॒। अ॒पाम्ऽइ॑व। प्र॒व॒णे। यस्य॑। दुः॒ऽधर॑म्। राधः॑। वि॒श्वऽआ॑यु। शव॑से। अप॑ऽवृतम् ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:57» Mantra:1 | Ashtak:1» Adhyay:4» Varga:22» Mantra:1 | Mandal:1» Anuvak:10» Mantra:1


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर सभाध्यक्ष कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

Word-Meaning: - जैसे मैं यस्य जिस सभा आदि के अध्यक्ष के (शवसे) बल के लिये (प्रवणे) नीचे स्थान में (अपामिव) जलों के समान (अपावृतम्) दान वा भोग के लिये प्रसिद्ध (विश्वायु) पूर्ण आयुयुक्त (दुर्धरम्) दुष्ट जनों को दुःख से धारण करने योग्य (राधः) विद्या वा राज्य से सिद्ध हुआ धन है, उस (सत्यशुष्माय) सत्य बलों का निमित्त (तवसे) बलवान् (बृहद्रये) बड़े उत्तम-उत्तम धन युक्त (बृहते) गुणों से बड़े (मंहिष्ठाय) अत्यन्त दान करनेवाले सभाध्यक्ष के लिये (मतिम्) विज्ञान को (प्रभरे) उत्तम रीति से धारण करता हूँ, वैसे तुम भी धारण कराओ ॥ १ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे जल ऊँचे देश से आकर नीचे देश अर्थात् जलाशय को प्राप्त होके स्वच्छ, स्थिर होता है, वैसे नम्र, बलवान् पुरुषार्थी, धार्मिक, विद्वान् मनुष्य को प्राप्त हुआ विद्यारूप धन निश्चल होता है। जो राज्यलक्ष्मी को प्राप्त हो के सबके हित, न्याय वा विद्या की वृद्धि तथा शरीर, आत्मा के बल की उन्नति के लिये देता है, उसी शूरवीर, विद्यादि देनेवाले सभाशाला सेनापति मनुष्य का हम लोग अभिषेक करें ॥ १ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः सभाध्यक्षो कीदृशो भवेदित्युपदिश्यते ॥

Anvay:

यथाऽहं यस्य सभाद्यध्यक्षस्य शवसे प्रवणेऽपामिवापावृतं विश्वायु दुर्धरं राधोऽस्ति, तस्मै सत्यशुष्माय तवसे बृहद्रये बृहते मंहिष्ठाय मतिं प्रभरे तथा यूयमपि संधारयत ॥ १ ॥

Word-Meaning: - (प्र) प्रकृष्टार्थे (मंहिष्ठाय) योऽतिशयेन मंहिता दाता तस्मै। मंह इति दानकर्मसु पठितम्। (निघं०३.२०) (बृहते) गुणैर्महते (बृहद्रये) बृहन्तो रायो धनानि यस्य तस्मै। अत्र वर्णव्यत्ययेन ऐकारस्य स्थान एकारः। (सत्यशुष्माय) सत्यं शुष्मं बलं यस्य तस्मै (तवसे) बलवते (मतिम्) विज्ञानम् (भरे) धरे (अपामिव) जलानामिव (प्रवणे) निम्ने (यस्य) सभाध्यक्षस्य (दुर्धरम्) शत्रुभिर्दुःखेन धर्तुं योग्यम् (राधः) विद्याराज्यसिद्धं धनम् (विश्वायु) विश्वं सर्वमायुर्यस्मात्तत् (शवसे) सैन्यबलाय (अपावृतम्) दानाय भोगाय वा प्रसिद्धम् ॥ १ ॥
Connotation: - अत्रोपमालङ्कारः। यथा जलमूर्ध्वाद्देशादागत्य निम्नदेशस्थं जलाशयं प्राप्य स्थिरं स्वच्छं भवति तथा नम्राय धार्मिकाय बलवते पुरुषार्थिने मनुष्यायाक्षयं धनं निश्चलं जायते। यो राज्यश्रियं प्राप्य सर्वहिताय विद्यावृद्धये शरीरात्मबलोन्नतये प्रददाति, तमेव शूरं प्रदातारं सभाशालासेनापतित्वे वयमभिषिञ्चेम ॥ १ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

या सूक्तात अग्नी व सभाध्यक्ष इत्यादींच्या गुणांच्या वर्णनाने या सूक्तार्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

Word-Meaning: - N/A
Connotation: - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे जल उंच स्थानावरून खाली येते व जलाशयाला मिळते आणि स्वच्छ व स्थिर होते. तसे नम्र बलवान, पुरुषार्थी, धार्मिक विद्वान माणसाला प्राप्त झालेले विद्यारूपी धन निश्चल असते. जो राजलक्ष्मी प्राप्त करून सर्वांच्या हितासाठी न्याय, विद्येची वृद्धी करतो व शरीर आणि आत्मा यांचे बल वाढवितो त्याच शूरवीर विद्या देणाऱ्या सभेच्या सेनापतीचा आम्ही अभिषेक करावा. ॥ १ ॥