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त्वमे॒ताञ्ज॑न॒राज्ञो॒ द्विर्दशा॑ब॒न्धुना॑ सु॒श्रव॑सोपज॒ग्मुषः॑। ष॒ष्टिं स॒हस्रा॑ नव॒तिं नव॑ श्रु॒तो नि च॒क्रेण॒ रथ्या॑ दु॒ष्पदा॑वृणक् ॥

English Transliteration

tvam etāñ janarājño dvir daśābandhunā suśravasopajagmuṣaḥ | ṣaṣṭiṁ sahasrā navatiṁ nava śruto ni cakreṇa rathyā duṣpadāvṛṇak ||

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Pad Path

त्वम्। ए॒तान्। ज॒न॒ऽराज्ञः॑। द्विः। दश॑। अ॒ब॒न्धुना॑। सु॒ऽश्रव॑सा। उ॒प॒ऽज॒ग्मुषः॑। ष॒ष्टिम्। स॒हस्रा॑। न॒व॒तिम्। नव॑। श्रु॒तः। नि। च॒क्रेण॑। रथ्या॑। दुः॒ऽपदा॑। अ॒वृ॒ण॒क् ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:53» Mantra:9 | Ashtak:1» Adhyay:4» Varga:16» Mantra:4 | Mandal:1» Anuvak:10» Mantra:9


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वह क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

Word-Meaning: - हे सभा और सेना के अध्यक्ष ! जैसे (श्रुतः) श्रवण करनेवाले (त्वम्) तुम (एतान्) इन (अबन्धुना) अबन्धु अर्थात् मित्ररहित अनाथ वा (सुश्रवसा) उत्तम श्रवण अन्नयुक्त मित्र के साथ वर्त्तमान (उपजग्मुषः) समीप होनेवाले (षष्टिम्) साठ (नवतिम्) नव्वे (नव) नौ (दश) (सहस्राणि) दस हजार (जनराज्ञः) धार्मिक राजायुक्त मनुष्यादिकों को (दुष्पदा) दुःख से प्राप्त होने योग्य (रथ्या) रथ को प्राप्त करनेवाले (चक्रेण) शस्त्र विशेष वा चक्रादि अङ्क युक्त यानसमूह से (द्विः) दो बेर (न्यवृणक्) नित्य दुःखों से अलग करते वा दुष्टों को दूर करते हो, वैसे तू भी पापाचरण से सदा दूर रह ॥ ९ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। चक्रवर्त्ति राजा को माण्डलिक वा महामाण्डलिक राजा भृत्य गृहस्थ वा विरक्तों को प्रसन्न और शरणागत आये हुए मनुष्य की रक्षा करके धर्मयुक्त सार्वभौम राज्य का यथावत् पालन करना चाहिये और दश आदि सब संख्यावाची शब्द उपलक्षण के लिये हैं, इससे राजपुरुषों को योग्य है कि सब की यथावत् रक्षा वा दुष्टों को दण्ड देवे ॥ ९ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः स किं कुर्यादित्युपदिश्यते ॥

Anvay:

हे सभाद्यध्यक्ष ! यथा श्रुतस्त्वमेतानबन्धुना सुश्रवसा सह वर्त्तमानानुपजग्मुष उपगतां षष्टिं नवतिं नव दश च सहस्राणि जनराज्ञो दुष्पदा रथ्या दुष्प्रापकेन रथ्येन चक्रेण द्विर्न्यवृणक् नित्यं वृणक्षि दुःखैः पृथक् करोषि दुष्टांश्च दूरीकरोषि तथा त्वमपि दुराचारात्पृथक् वस ॥ ९ ॥

Word-Meaning: - (त्वम्) सभाद्यध्यक्षः (एतान्) मनुष्यादीन् (जनराज्ञः) जना धार्मिका राजानो येषां तान् (द्विः) द्विवारम् (दश) दशसंख्यायाम् (अबन्धुना) अविद्यमाना बन्धवो मित्रा यस्य तेनार्थेन सह (सुश्रवसा) शोभनानि श्रवांसि श्रवणान्यन्नानि वा यस्य तेन मित्रेण सह (उपजग्मुषः) य उप सामीप्ये गतवन्तस्तान् (षष्टिम्) एतत्संख्याकान् (सहस्रा) सहस्राणि (नवतिम्) एतत्संख्याकान् (नव) एतत्संख्यापरिमिताञ्छूरान् भृत्यान् (श्रुतः) यः श्रूयते सः (नि) नित्यम् (चक्रेण) शस्त्रसमूहेन चक्राङ्गयुक्तेन यानसमूहेन वा (रथ्या) यो रथं वहति तेन रथ्येन (दुष्पदा) दुःखेन पत्तुं प्राप्तुं योग्येन (अवृणक्) वृणक्षि ॥ ९ ॥
Connotation: - चक्रवर्त्तिना राज्ञा सर्वान् माण्डलिकान् महामाण्डलिकान् राज्ञो भृत्यान् गृहस्थान् विरक्तान् वाऽनुरज्य शरणागतान् पालयित्वा धर्म्यं सार्वभौमराज्यमनुशासनीयम्। यतो दशेत्यादयः संख्यावाचिनः शब्दा उपलक्षणार्थाः सन्त्यतो राजपुरुषैः सर्वेषां यथायोग्यं रक्षणं दण्डनं च विधेयमिति ॥ ९ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. चक्रवर्ती राजाने मांडलिक किंवा महामांडलिक राजा, सेवक, गृहस्थ व विरक्तांना प्रसन्न केले पाहिजे. शरणागत आलेल्या माणसाचे रक्षण करून धर्मयुक्त सार्वभौम राज्याचे यथायोग्य पालन केले पाहिजे. दहा इत्यादीने सर्व संख्यावाची शब्द उपलक्षणासाठी घेतलेले आहेत. यामुळे राजपुरुषांनी सर्वांचे यथायोग्य रक्षण करावे व दुष्टांना दंड द्यावा. ॥ ९ ॥