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स पर्व॑तो॒ न ध॒रुणे॒ष्वच्यु॑तः स॒हस्र॑मूति॒स्तवि॑षीषु वावृधे। इन्द्रो॒ यद्वृ॒त्रमव॑धीन्नदी॒वृत॑मु॒ब्जन्नर्णां॑सि॒ जर्हृ॑षाणो॒ अन्ध॑सा ॥

English Transliteration

sa parvato na dharuṇeṣv acyutaḥ sahasramūtis taviṣīṣu vāvṛdhe | indro yad vṛtram avadhīn nadīvṛtam ubjann arṇāṁsi jarhṛṣāṇo andhasā ||

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Pad Path

सः। पर्व॑तः। न। ध॒रुणे॑षु। अच्यु॑तः। स॒हस्र॑म्ऽऊतिः॑। तवि॑षीषु। व॒वृ॒धे॒। इन्द्रः॑। यत्। वृ॒त्रम्। अव॑धीत्। न॒दी॒ऽवृत॑म्। उ॒ब्जन्। अर्णां॑सि। जर्हृ॑षाणः। अन्ध॑सा ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:52» Mantra:2 | Ashtak:1» Adhyay:4» Varga:12» Mantra:2 | Mandal:1» Anuvak:10» Mantra:2


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

Word-Meaning: - हे राजप्रजाजन ! जैसे (धरुणेषु) धारकों में (अच्युतः) सत्य सामर्थ्य युक्त (अर्णांसि) जलों को (उब्जन्) बल पकड़ता हुआ (इन्द्रः) सविता (नदीवृतम्) नदियों से युक्त वा नदियों को वर्त्तानेवाले (वृत्रम्) मेघ को (अवधीत्) मारता है (सः) वह (पर्वतः) पर्वत के (न) समान (ववृधे) बढ़ता है, वैसे (यत्) जो तू शत्रुओं को मार (सहस्रमूतिः) असंख्यात रक्षा करनेहारे (तविषीषु) बलों में (जर्हृषाणः) बार-बार हर्ष को प्राप्त करता हुआ (अन्धसा) अन्नादि के साथ वर्त्तमान बार-बार बढ़ाता रह ॥ २ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य सेना आदि को धारण कर और मेघ के तुल्य अन्नादि सामग्री के साथ वर्त्तमान हो के बलों को बढ़ाता है, वह पर्वत के समान स्थिर सुखी हो शत्रुओं को मार कर राज्य के बढ़ाने में समर्थ होता है ॥ २ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

Anvay:

हे राजप्रजाजन ! यथा धरुणेष्वच्युतोऽर्णांस्युब्जन्निन्द्रो नदीवृतं वृत्रमवधीत्, स च पर्वतो नेव वावृधे पुनः पुनर्वर्धते, यद्यस्त्वं शत्रून् हिन्धि सहस्रमूतिस्तविषीषु जर्हृषाणः सन्नन्धसा वर्द्धस्व ॥ २ ॥

Word-Meaning: - (सः) पूर्वोक्तः (पर्वतः) मेघः (न) इव (धरुणेषु) धारकेषु वाय्वादिषु (अच्युतः) अक्षयः (सहस्रमूतिः) सहस्रमूतयो रक्षणादीनि यस्मात्सः। अत्र वाच्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति विभक्त्यलोपः। (तविषीषु) बलयुक्तेषु सैन्येषु (वावृधे) अतिशयेन वर्द्धते (इन्द्रः) सूर्यः (यत्) यः (वृत्रम्) मेघम् (अवधीत्) हन्ति (नदीवृतम्) नदीभिर्वृतो युक्तो नदीर्वर्त्तयति वा तम् (उब्जन्) आर्जवं कुर्वन्। अधो निपातयन् वा (अर्णांसि) जलानि। अर्ण इत्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (जर्हृषाणः) पुनः पुनर्हर्षं प्रापयन् (अन्धसा) अन्नादिना ॥ २ ॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यो मनुष्यः सूर्यवत्सेनादिधारणं कृत्वा मेघवदन्नादिसामग्र्या सह वर्त्तमानो बलानि वर्धयति, स गिरिवत्स्थिरसुखः सन् शत्रून् हत्वा राज्यं वर्द्धयितुं शक्नोति ॥ २ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो माणूस सेना इत्यादीला धारण करून मेघाप्रमाणे अन्न इत्यादी सामग्रीसह बल वाढवितो तो पर्वताप्रमाणे स्थिर व सुखी होऊन शत्रूला नष्ट करून राज्य वाढविण्यास समर्थ होतो. ॥ २ ॥