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मन्दि॑ष्ट॒ यदु॒शने॑ का॒व्ये सचाँ॒ इन्द्रो॑ व॒ङ्कू व॑ङ्कु॒तराधि॑ तिष्ठति। उ॒ग्रो य॒यिं निर॒पः स्रोत॑सासृज॒द्वि शुष्ण॑स्य दृंहि॒ता ऐ॑रय॒त्पुरः॑ ॥

English Transliteration

mandiṣṭa yad uśane kāvye sacām̐ indro vaṅkū vaṅkutarādhi tiṣṭhati | ugro yayiṁ nir apaḥ srotasāsṛjad vi śuṣṇasya dṛṁhitā airayat puraḥ ||

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Pad Path

मन्दि॑ष्ट॑। यत्। उ॒शने॑। का॒व्ये। सचा॑। इन्द्रः॑। व॒ङ्कू इति॑। व॒ङ्कु॒ऽतरा। अधि॑। ति॒ष्ठ॒ति॒। उ॒ग्रः। य॒यिम्। निः। अ॒पः। स्रोत॑सा। अ॒सृ॒ज॒त्। वि। शुष्ण॑स्य। दृं॒हि॒ताः। ऐ॒र॒य॒त्। पुरः॑ ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:51» Mantra:11 | Ashtak:1» Adhyay:4» Varga:11» Mantra:1 | Mandal:1» Anuvak:10» Mantra:11


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

Word-Meaning: - हे (मन्दिष्ट) अतिशय करके स्तुति करनेवाले जो (उग्रः) दुष्टों को मारनेवाले (इन्द्रः) सभाध्यक्ष ! आप जैसे सूर्य (स्रोतसा) स्रोतों से (आपः) जलों को बहाता है, वैसे (उशने) अतीव सुन्दर (यत्) जिस (काव्ये) कवियों के कर्म में जो (वङ्कू) कुटिल (वङ्कुतरा) अतिशय करके कुटिल चालवाले शत्रु और उदासी मनुष्यों के (अधितिष्ठति) राज्य में अधिष्ठाता होते हो जैसे सविता (सचा) अपने गुणों से (ययिम्) मेघ को (निरसृजत्) नित्य सर्जन करता है, वैसे (शुष्णस्य) बल की (दृंहिता) वृद्धि कराने हारी क्रियाओं को (पुरः) पहिले (व्यैरयत्) प्राप्त करते हो, सो आप सत्कार करने योग्य हो ॥ ११ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि जो कवि सब शास्त्र का वक्ता, कुटिलता का विनाश करने, दुष्टों में कठोर, श्रेष्ठों में कोमल, सर्वथा बल को बढ़ानेवाला पुरुष है, उसी को सभा आदि के अधिकारों में स्वीकार करें ॥ ११ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

Anvay:

हे मन्दिष्ट ! य उग्र इन्द्रः सभाध्यक्षो भवान् सूर्य्यः स्रोतसाऽपि इव यद्वङ्कू कुटिलौ वङ्कुतरौ शत्रूदासीनावधितिष्ठति यथा सविता सचा ययिं मेघं निरसृजत् तथा शुष्णस्य बलस्य दृंहिताः क्रियाः पुरो व्यैरयद् विविधतया प्रेरते तथा त्वं भव ॥ ११ ॥

Word-Meaning: - (मन्दिष्ट) अतिशयेन मन्दिता तत्सम्बुद्धौ (यत्) यस्मिन् (उशने) कामयमाने (काव्ये) कवीनां कर्मणि (सचा) विज्ञानप्रापकेन गुणसमूहेन (इन्द्रः) सभाध्यक्षः (वङ्कू) कुटिलगती शत्रूदासीनौ (वङ्कुतरा) अतिशयेन कुटिलौ (अधि) ईश्वरोपरिभावयोः (तिष्ठति) प्रवर्त्तते (उग्रः) दुष्टानां हन्ता (ययिम्) याति सोऽयं ययिर्मेघस्तम् (निः) नितराम् (अपः) जलानीव प्राणान् (स्रोतसा) प्रसवितेन (असृजत्) सृजति (वि) विशिष्टार्थे (शुष्णस्य) बलस्य (दृंहिता) वर्धिकाः क्रियाः (ऐरयत्) गमयति (पुरः) पूर्वम् ॥ ११ ॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यः कविः सर्वशास्त्रवेत्ता कुटिलताविनाशको दुष्टानामुपर्युग्रः श्रेष्ठानामुपरि कोमलः सर्वथा बलवर्द्धकः पुरुषोऽस्ति, स एव सभाधिकारादिषु योजनीयः ॥ ११ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो कवी, सर्व शास्त्रांचा वक्ता, कुटिलतेचा नाश करणारा, दुष्टांना कठोर, श्रेष्ठांमध्ये कोमल, सर्वस्वी बल वाढविणारा पुरुष असतो. त्यालाच माणसांनी सभा इत्यादीचा अधिकारी म्हणून स्वीकारावे. ॥ ११ ॥