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च॒तुर॑श्चि॒द्दद॑मानाद्बिभी॒यादा निधा॑तोः । न दु॑रु॒क्ताय॑ स्पृहयेत् ॥

English Transliteration

caturaś cid dadamānād bibhīyād ā nidhātoḥ | na duruktāya spṛhayet ||

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Pad Path

च॒तुरः॑ । चि॒त् । दद॑मानात् । बि॒भी॒यात् । आ । निधा॑तोः । न । दुः॒उ॒क्ताय॑ । स्पृ॒ह॒ये॒त्॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:41» Mantra:9 | Ashtak:1» Adhyay:3» Varga:23» Mantra:4 | Mandal:1» Anuvak:8» Mantra:9


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

जो कहे और जिनको आगे कहते हैं, उन चार दुष्टों से नित्य भय करके उनका विश्वास कभी न करे, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

Word-Meaning: - मनुष्य (चतुरः) मारने शाप देने और (ददमानात्) विषादि देने और (निधातोः) अन्याय से दूसरे के पदार्थों को हरनेवाले इन चार प्रकार के मनुष्यों का विश्वास न करे (चित्) और इन से (बिभीयात्) नित्य डरे और (दुरुक्ताय) दुष्ट वचन कहने वाले मनुष्य के लिये (न स्पृहयेत्) इन पाचों को मित्र करने की इच्छा कभी न करें ॥९॥
Connotation: - जैसे मनुष्य को दुष्ट कर्म्म करने वा दुष्ट वचन बोलने वाले मनुष्यों का संग विश्वास और मित्र से द्रोह, दूसरे का अपमान और विश्वासघात आदि कर्म्म कभी न करें ॥९॥ सं० भा० के अनुसार जैसे पद नहीं चाहिये। सं० इस सूक्त में प्रजा की रक्षा शत्रुओं को जीतना, मार्ग का शोधना यान की रचना और उनका चलाना, द्रव्यों की उन्नति करना श्रेष्ठों के साथ मित्रता दुष्टों में विश्वास न करना और अधर्माचरण से नित्य डरना इस प्रकार कथन से पूर्व सूक्तार्थ के साथ इस सूक्त के अर्थ की सङ्गति जाननी चाहिये। यह पहिले अष्टक के तीसरे अध्याय में तेईसवां वर्ग। २३। और पहिले मण्डल में इकतालीसवां सूक्त समाप्त हुआ ॥४१॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

(चतुरः) घ्नन्तं शपन्तं द्वावुक्तौ। द्वौ वक्ष्यमाणौ (चित्) अपि (ददमानात्) दुःखार्थं विषादिकं प्रयच्छतः (बिभीयात्) भयं कुर्य्यात् (आ) आभिमुख्ये (निधातोः) अन्यायेन परपदार्थानां स्वीकर्त्तुः (न) निषेधार्थे (दुरुक्ताय) दुष्टमुक्तं येन तस्मै (स्पृहयेत्) ईप्सेदाप्तुमिच्छेत् ॥९॥

Anvay:

उक्तवक्ष्यमाणेभ्यश्चतुर्भ्यो दुष्टेभ्यो भयं कृत्वा कदाचिन्न विश्वसेदित्युपदिश्यते।

Word-Meaning: - मनुष्यो घ्नतः शपतो ददमानान्निधातोरेताञ्चतुरः प्रति न विश्वसेच्चिद्विभीयात्तथा दुरुक्ताय न स्पृहयेदेतान्पं च मित्रान्कर्त्तुं नेच्छेत् ॥९॥
Connotation: - मनुष्यैर्दुष्टकर्म्मकारिणां दुष्टवचसां सङ्गविश्वासौ कदाचिन्नैव कार्यौ मित्रद्रोहापमानविश्वासघाताश्च कदाचिन्नैव कर्त्तव्या इति ॥९॥ अस्मिन्सूक्ते प्रजारक्षणं शत्रुविजयमार्गशोधनं यानरचनचालने द्रव्योन्नतिकरणं श्रेष्ठैः सह मित्रत्वभावनं दुष्टेष्वविश्वासकरणमधर्म्माचरणान्नित्यं भयमित्युक्तमतः पूर्वसूक्तार्थेन सहैतदर्थस्य संगतिरस्तीति बोध्यम्। इति प्रथमस्य तृतीये त्रयोविंशो वर्गः। २३। प्रथममंडल एकचत्वारिंशं सूक्तं च समाप्तम् ॥४१॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - माणसांनी दुष्ट कर्म करणाऱ्या, दुष्ट वचन बोलणाऱ्या माणसांचा संग, विश्वासघात तसेच मित्रांशी द्रोह, दुसऱ्याचा अपमान इत्यादी कर्मे कधी करू नयेत. ॥ ९ ॥