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त्वे॒षासो॑ अ॒ग्नेरम॑वन्तो अ॒र्चयो॑ भी॒मासो॒ न प्रती॑तये । र॒क्ष॒स्विनः॒ सद॒मिद्या॑तु॒माव॑तो॒ विश्वं॒ सम॒त्रिणं॑ दह ॥

English Transliteration

tveṣāso agner amavanto arcayo bhīmāso na pratītaye | rakṣasvinaḥ sadam id yātumāvato viśvaṁ sam atriṇaṁ daha ||

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Pad Path

त्वे॒षासः॑ । अ॒ग्नेः । अम॑वन्तः । अ॒र्चयः॑ । भी॒मासः॑ । न । प्रति॑इतये । र॒क्ष॒स्विनः॑ । सद॑म् । इत् । या॒तु॒माव॑तः । विश्व॑म् । सम् । अ॒त्रिण॑म् । द॒ह॒॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:36» Mantra:20 | Ashtak:1» Adhyay:3» Varga:11» Mantra:5 | Mandal:1» Anuvak:8» Mantra:20


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अब उस सभापति के प्रति क्या-२ उपदेश करे, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

Word-Meaning: - हे तेजस्वी सभास्वामिन् ! आप (अग्नेः) सूर्य विद्युत और प्रसिद्ध रूप अग्नि की (त्वेषासः) प्रकाशस्वरूप (भीमासः) भयकारक (अर्चयः) ज्वाला। के (न) समान जो (अमवन्तः) निन्दित रोग करनेवाले (रक्षस्विनः) राक्षस अर्थात् निंदित पुरुष हैं उन और (अत्रिणम्) बल से दूसरे के पदार्थों को हरनेवाले शत्रु को (इत्) ही (संदह) अच्छे प्रकार भस्म कीजिये और (प्रतीतये) विज्ञान वा उत्तम सुख की प्रतीति होने के लिये (विश्वम्) सब (सदम्) संसार तथा (यातुमावतः) मेरे समान होने वालों की रक्षा कीजिये ॥२०॥
Connotation: - इस मंत्र में सायणाचार्य ने यातु पूर्वपद और भावान् उत्तर पद नहीं जान (यातुमा) इस पूर्वपद से मतुप् प्रत्यय माना है सो पद पाठ से विरुद्ध होने के कारण अशुद्ध है। सभाध्यक्ष आदि राजपुरुषों और प्रजा के मनुष्यों को चाहिये कि जिस प्रकार अग्नि आदि पदार्थ वन आदि को भस्म कर देते हैं वैसे दुःख देनेवाले शत्रु जनों के विनाश के लिये इस प्रकार प्रयत्न करें ॥२०॥ इस सूक्त में सबकी रक्षा करनेवाले परमेश्वर तथा दूत के दृष्टान्त से भौतिक अग्नि के गुणों का वर्णन दूत के गुणों का उपदेश अग्नि के दृष्टान्त से राजपुरुषों के गुणों का वर्णन सभापति का कृत्य सभापति होने के अधिकारी का कथन अग्नि आदि पदार्थों से उपयोग लेने की रीति मनुष्यों को सभापति से प्रार्थना सब मनुष्यों को सभाध्यक्ष के साथ मिलके दुष्टों का मारना और राजपुरुषों के सहायक जगदीश्वर के उपदेश से इस सूक्त के अर्थ की पूर्वसूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये। यह छत्तीसवां सूक्त और ग्यारहवां वर्ग समाप्त हुआ ॥३६॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

(त्वेषासः) त्विषन्ति दीप्यन्ते यास्ताः (अग्नेः) सूर्यविद्युत्प्रसिद्धरूपस्य (अमवन्तः) निन्दितरोगकारकाः (अर्चयः) दीप्तयः। अर्चिरिति ज्वलतो नामधेयेषु पठितम्। निघं० १।१७। (भीमासः) विभ्यति याभ्यस्ता भयङ्कराः (न) इव (प्रतीयते) सुखप्राप्तये ज्ञानाय वा (रक्षस्विनः) रक्षांसि निन्दिताः पुरुषाः सन्ति येषु व्यवहारेषु ते। अत्र निन्दितार्थे विनिः। (सदम्) सीदंत्यवतिष्ठन्ति यस्मिँस्तत् (इत्) एव (यातुमावतः) यान्ति प्राप्नुवन्ति ये यातवः मत्सदृशा इति मावन्तः। यातवश्च ते मावन्तश्च तान्। अत्र सायणाचार्येण यातुरिति पूर्वपदं मावानित्युत्तरपदं चाविदित्वा यातु# मावत्पदान्मतुप्कृतस्तदिदं पदपाठाद्विरुद्धत्वादशुद्धम् (विश्वम्) सर्वं जगत् (सम्) सम्यगर्थे (अत्रिणम्) परपदार्थापहर्त्तारं शत्रुम् (दह) भस्मी कुरु ॥२०॥ #[‘यन्तुमा’ पदात्। सं०]

Anvay:

अथ तं सभेशं प्रति किंकिमुपदिशेदित्याह।

Word-Meaning: - हे तेजस्विन् सभापते त्वमग्नेस्त्वेषासो भीमासोऽर्चयोर्नं येऽमवन्तो रक्षस्विनः सन्ति तानत्रिणं चेदेवं संदह प्रतीतये विश्वंसदं यातुमावतश्चसंरक्ष ॥२०॥
Connotation: - सभाध्यक्षादिभी राजपुरुषैः प्रजाजनैश्च यथाऽग्न्यादयः वनादीनि दहन्ति दुष्टाचाराः प्रणिनो विनाशनीयाः एवं प्रयतमानैः सततं प्रजारक्षणं कार्यामति ॥२०॥ अत्र सर्वाभिरक्षकेश्वरस्य दूतदृष्टान्तेन भौतिकाग्नेश्च गुणवर्णनं दूतगुणोपदेशोऽग्निदृष्टान्तेन राजपुरुषगुणवर्णनं सभापतिकृत्यं सभापतित्वाधिकारिप्रकारोऽग्न्यादिपदार्थोपयोगकरणं मनुष्याणां सभेशस्य प्रार्थना सर्वमनुष्याणां सभाध्यक्षेण सह दुष्टहननं राजपुरुषसहायकेश्वरवर्णनं चोक्तमत एतत्सूक्तोक्तार्थस्य पूर्वसूक्तोक्तार्थेन सहसंगतिरस्तीति वेदितव्यम्। षट्त्रिंशं सूक्तमेकादशो वर्गश्च समाप्तः ॥३६॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात सायणाचार्य यातु पूर्वपद व मावान् उत्तरपद न जाणून (यातुमा) या पूर्वपदाने मतुप प्रत्यय मानलेला आहे. त्यासाठी पदपाठ विरुद्ध असल्यामुळे अशुद्ध आहे.
Footnote: सभाध्यक्ष इत्यादी राजपुरुष व प्रजेने हे जाणले पाहिजे की, ज्या प्रकारे अग्नी इत्यादी पदार्थ वनाला भस्म करतात त्या प्रकारे दुःख देणाऱ्या शत्रूंच्या विनाशासाठी प्रयत्न करावेत. ॥ २० ॥