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त्वं नो॑ अग्ने पि॒त्रोरु॒पस्थ॒ आ दे॒वो दे॒वेष्व॑नवद्य॒ जागृ॑विः। त॒नू॒कृद्बो॑धि॒ प्रम॑तिश्च का॒रवे॒ त्वं क॑ल्याण॒ वसु॒ विश्व॒मोपि॑षे ॥

English Transliteration

tvaṁ no agne pitror upastha ā devo deveṣv anavadya jāgṛviḥ | tanūkṛd bodhi pramatiś ca kārave tvaṁ kalyāṇa vasu viśvam opiṣe ||

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Pad Path

त्वम्। नः॒। अ॒ग्ने॒। पि॒त्रोः। उ॒पऽस्थे॑। आ। दे॒वः। दे॒वेषु॑। अ॒न॒व॒द्य॒। जागृ॑विः। त॒नू॒ऽकृत्। बो॒धि॒। प्रऽम॑तिः। च॒। का॒रवे॑। त्वम्। क॒ल्या॒ण॒। वसु॑। विश्व॑म्। आ। ऊ॒पि॒षे॒ ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:31» Mantra:9 | Ashtak:1» Adhyay:2» Varga:33» Mantra:4 | Mandal:1» Anuvak:7» Mantra:9


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

Word-Meaning: - हे (अनवद्य) उत्तम कर्मयुक्त (अग्ने) सब पदार्थों के जाननेवाले सभापते ! (जागृविः) धर्मयुक्त पुरुषार्थ में जागने (देवः) सब प्रकाश करने (तनूकृत्) और बड़े-बड़े पृथिवी आदि बड़े लोकों में ठहरने हारे आप (देवेषु) विद्वान् वा अग्नि आदि तेजस्वी दिव्य गुणयुक्त लोकों में (पित्रोः) माता-पिता के (उपस्थे) समीपस्थ व्यवहार में (नः) हम लोगों को (ऊपिषे) वार-वार नियुक्त कीजिये। (कल्याण) हे अत्यन्त सुख देनेवाले राजन् ! (प्रमतिः) उत्तम ज्ञान देते हुए आप (कारवे) कारीगरी के चाहनेवाले मुझ को (वसु) विद्या, चक्रवर्त्ति राज्य आदि पदार्थों से सिद्ध होनेवाले (विश्वम्) समस्त धन का (आबोधि) अच्छे प्रकार बोध कराइये ॥ ९ ॥
Connotation: - फिर भी ईश्वर की इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये कि हे भगवन् ! जब-जब आप जन्म दें, तब-तब श्रेष्ठ विद्वानों के सम्बन्ध में जन्म दें और वहाँ हम लोगों को सर्व विद्यायुक्त कीजिये, जिससे हम लोग सब धनों को प्राप्त होकर सदा सुखी हों ॥ ९ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

Anvay:

अनवद्याग्ने सभास्वामिन् ! जागृविर्देवस्तनूकृत्त्वं देवेषु पित्रोरुपस्थे नोऽस्मानोपिषे वपसि सर्वतः प्रादुर्भावयसि। हे कल्याणप्रमतिस्त्वं कारवे मह्यं विश्वमाबोधि समन्ताद्बोधय ॥ ९ ॥

Word-Meaning: - (त्वम्) सर्वमङ्गलकारकः सभाध्यक्षः (नः) अस्मान् (अग्ने) विज्ञानस्वरूप (पित्रोः) जनकयोः (उपस्थे) उपतिष्ठन्ति यस्मिन् तस्मिन्। अत्र घञर्थे कविधानं स्थास्नापाव्यधिहनियुध्यर्थम्। (अष्टा०वा०३.३.५८) अनेनाधिकरणे कः। (आ) अभितः (देवः) सर्वस्य न्यायविनयस्य द्योतकः (देवेषु) विद्वत्सु अग्न्यादिषु त्रयस्त्रिंशद्दिव्यगुणेषु वा (अनवद्य) न विद्यते वद्यं निन्द्यं कर्म्म यस्मिन् तत्सम्बुद्धौ अवद्यपण्यवर्य्या० (अष्टा०३.१.१०१) अनेन गर्ह्येऽवद्यशब्दो निपातितः। (जागृविः) यो नित्यं धर्म्ये पुरुषार्थे जागर्ति सः (तनूकृत्) यस्तनूषु पृथिव्यादिविस्तृतेषु लोकेषु विद्यां करोति सः (बोधि) बोधय। अत्र लोडर्थे लङडभावोऽन्तर्गतो ण्यर्थश्च। (प्रमतिः) प्रकृष्टा मतिर्ज्ञानं यस्य सः (च) समुच्चये (कारवे) शिल्पकार्यसम्पादनाय (त्वम्) सर्वविद्यावित् (कल्याण) कल्याणकारक (वसु) विद्याचक्रवर्त्यादिराज्यसाध्यधनम् (विश्वम्) सर्वम् (आ) समन्तात् (ऊपिषे) वपसि। अत्र लडर्थे लिट् ॥ ९ ॥
Connotation: - पुनरित्थं जगदीश्वरः प्रार्थनीयः। हे भगवन् ! यदा यदास्माकं जन्म दद्यास्तदा तदा विद्वत्तमानां सम्पर्के जन्म दद्यास्तत्रास्मान् सर्वविद्यायुक्तान् कुरु, यतो वयं सर्वाणि धनानि प्राप्य सदा सुखिनो भवेमेति ॥ ९ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - ईश्वराची अशाप्रकारे प्रार्थना केली पाहिजे की, हे देवा! जेव्हा जेव्हा तू जन्म देशील तेव्हा तेव्हा श्रेष्ठ विद्वानांचा संपर्क घडेल असा दे व तेथे आम्हाला सर्व विद्यायुक्त कर, ज्यामुळे आम्ही धन प्राप्त करून सदैव सुखी व्हावे. ॥ ९ ॥