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त्वम॑ग्ने वृजि॒नव॑र्तनिं॒ नरं॒ सक्म॑न्पिपर्षि वि॒दथे॑ विचर्षणे। यः शूर॑साता॒ परि॑तक्म्ये॒ धने॑ द॒भ्रेभि॑श्चि॒त्समृ॑ता॒ हंसि॒ भूय॑सः ॥

English Transliteration

tvam agne vṛjinavartaniṁ naraṁ sakman piparṣi vidathe vicarṣaṇe | yaḥ śūrasātā paritakmye dhane dabhrebhiś cit samṛtā haṁsi bhūyasaḥ ||

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Pad Path

त्वम्। अ॒ग्ने॒। वृ॒जि॒नऽव॑र्तनिम्। नर॑म्। सक्म॑न्। पि॒प॒र्षि॒। वि॒दथे॑। वि॒ऽच॒र्ष॒णे॒। यः। शूर॑ऽसाता। परि॑ऽतक्म्ये। धने॑। द॒भ्रेभिः॑। चि॒त्। सम्ऽऋ॑ता। हंसि॑। भूय॑सः ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:31» Mantra:6 | Ashtak:1» Adhyay:2» Varga:33» Mantra:1 | Mandal:1» Anuvak:7» Mantra:6


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अब ईश्वर का उपासक वा प्रजा पालनेहारा पुरुष क्या-क्या कृत्य करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

Word-Meaning: - हे (सक्मन्) सब पदार्थों का सम्बन्ध कराने (विचर्षणे) अनेक प्रकार के पदार्थों को अच्छे प्रकार देखनेवाले (अग्ने) राजनीतिविद्या से शोभायमान सेनापति ! (यः) जो तू (विदथे) धर्मयुक्त यज्ञरूपी (शूरसातौ) संग्राम में (दभ्रेभिः) थोड़े ही साधनों से (वृजिनवर्त्तनिम्) अधर्म मार्ग में चलनेवाले (नरम्) मनुष्य और (भूयसः) बहुत शत्रुओं का (हंसि) हननकर्त्ता है और (समृता) अच्छे प्रकार सत्य कर्मों का (पिपर्षि) पालनकर्त्ता है, सो आप चोरों द्वारा पराये पदार्थों के हरने की इच्छा से (परितक्म्ये) सब ओर से देखने योग्य (धने) सुवर्ण विद्या और चक्रवर्त्ति राज्य आदि धन की रक्षा करने के निमित्त हमारे सेनापति हूजिये ॥ ६ ॥
Connotation: - परमेश्वर का यह स्वभाव है कि जो पुरुष अधर्म छोड़ धर्म करने की इच्छा करते हैं, उनको अपनी कृपा से शीघ्र ही धर्म में स्थिर करता है, जो धर्म से युद्ध वा धन को सिद्ध कराना चाहते हैं, उनकी रक्षा कर उनके कर्मों के अनुसार उनके लिये धन देता और जो खोटे आचरण करते हैं, उनको उनके कर्मों के अनुसार दण्ड देता है, जो ईश्वर की आज्ञा में वर्त्तमान धर्मात्मा थोड़े भी युद्ध के पदार्थों से युद्ध करने को प्रवृत्त होते हैं, ईश्वर उन्हीं को विजय देता है, औरों को नहीं ॥ ६ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अथेश्वरोपासकः प्रजारक्षकाः किं कुर्यादित्युपदिश्यते।

Anvay:

हे सक्मन् विचर्षणेऽग्नेसेनापते ! यो न्यायविद्यया प्रकाशमानस्त्वं विदथे शूरसातौ युद्धे दभ्रेभिरल्पैरपि साधनैर्वृजिनवर्त्तनिं नरं भूयसः शत्रूंश्च हंसि समृता समृतानि कर्माणि पिपर्षि स त्वं नः सेनाध्यक्षो भव ॥ ६ ॥

Word-Meaning: - (त्वम्) प्रजापालनेऽधिकृतः (अग्ने) सर्वतोऽभिरक्षक ! (वृजिनवर्त्तनिम्) वृजिनस्य बलस्य वर्त्तनिर्मार्गो यस्य तम्। अत्र सह सुपेति समासः। वृजिनमिति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) (नरम्) मनुष्यम् (सक्मन्) यः सचति तत्सम्बुद्धौ (पिपर्षि) पालयसि (विदथे) धर्म्ये युद्धे यज्ञे। विदथ इति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं०३.१७) (विचर्षणे) विविधपदार्थानां यथार्थद्रष्टा तत्सम्बुद्धौ (यः) (शूरसाता) शूराणां सातिः सम्भजनं यस्मिन् तस्मिन् संग्रामे। शूरसाताविति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं०२.१७) अत्र सुपां सुलुग्० इति ङेः स्थाने डादेशः। (परितक्म्ये) परितः सर्वतो हर्षनिमित्ते (धने) सुवर्णविद्या चक्रवर्त्तिराज्यादियुक्तद्रव्ये (दभ्रेभिः) अल्पैर्युद्धसाधनैः सह। दभ्रमिति ह्रस्वनामसु पठितम्। (निघं०३.२) दभ्रमर्भकमित्यल्पस्य दभ्रं दभ्नातेः। सुदम्भं भवति। अर्भकमवहृतं भवति। (निरु०३.२०) अत्र बहुलं छन्दसि इति भिस ऐस् न। (चित्) अपि (समृता) सम्यक् ऋतं सत्यं येषु तानि। अत्र शे स्थाने डादेशः। (हंसि) (भूयसः) बहून् ॥ ६ ॥
Connotation: - परमेश्वरस्यायं स्वभावोऽस्ति ये ह्यधर्मं त्यक्तुं धर्मं च सेवितुमिच्छन्ति, तान् कृपया धर्मस्थान् करोति, ये च धर्म्यं युद्धं धर्मसाध्यं धनं चिकीर्षन्ति तान् रक्षित्वा तत्तत्कर्मानुसारेण तेभ्यो धनमपि प्रयच्छति। ये च दुष्टाचारिणस्तान् तत्तत्कर्मानुकूलफलदानेन ताडयति य ईश्वराज्ञायां वर्त्तमाना धर्मात्मानोऽल्पैरपि युद्धसाधनैर्युद्धं कर्त्तुं प्रवर्त्तन्ते तेभ्यो विजयं ददाति नेतरेषामिति ॥ ६ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - परमेश्वराचा हा स्वभाव आहे की जे पुरुष अधर्म सोडून धर्माची कास धरतात त्यांना आपल्या कृपेने तो तत्काळ धर्मात स्थिर करतो. जे धर्माने युद्ध व धन कमावू इच्छितात त्यांचे रक्षण करून त्यांच्या कर्मानुसार त्यांना धन देतो व जे खोटे आचरण करतात त्यांना त्यांच्या कर्मानुसार दंड देतो. जे ईश्वराच्या आज्ञेचे पालन करणारे धर्मात्मा थोड्याशा युद्धसाहित्यासह युद्ध करण्यास प्रवृत्त होतात, ईश्वर त्यांनाच विजय देतो, इतरांना नाही. ॥ ६ ॥