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समि॑न्द्र गर्द॒भं मृ॑ण नु॒वन्तं॑ पा॒पया॑मु॒या। आ तू न॑ इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ॥

English Transliteration

sam indra gardabham mṛṇa nuvantam pāpayāmuyā | ā tū na indra śaṁsaya goṣv aśveṣu śubhriṣu sahasreṣu tuvīmagha ||

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Pad Path

सम्। इ॒न्द्र॒। ग॒र्द॒भम्। मृ॒ण॒। नु॒वन्त॑म्। पा॒पया॑। अ॒मु॒या। आ। तु। नः॒। इ॒न्द्र॒। शं॒स॒य॒। गोषु॑। अश्वे॑षु। शु॒भ्रिषु॑। स॒हस्रे॑षु। तु॒वी॒ऽम॒घ॒॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:29» Mantra:5 | Ashtak:1» Adhyay:2» Varga:27» Mantra:5 | Mandal:1» Anuvak:6» Mantra:5


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वह वीर कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

Word-Meaning: - हे (इन्द्र) सभाध्यक्ष ! तू (गर्दभम्) गदहे के समान (अमुया) हमारे पीछे (पापया) पापरूप मिथ्याभाषण से युक्त गवाही और भाषण आदि कपट से हम लोगों की (नुवन्तम्) स्तुति करते हुए शत्रु को (सम्मृण) अच्छे प्रकार दण्ड दे (तु) फिर (तुविमघ) हे बहुत से विद्या वा धर्मरूपी धनवाले (इन्द्र) न्यायाधीश तू (सहस्रेषु) हजारह (शुभ्रिषु) शुद्धभाव वा धर्मयुक्त व्यवहारों से ग्रहण किये हुए (गोषु) पृथिवी आदि पदार्थ वा (अश्वेषु) हाथी घोड़ा आदि पशुओं के निमित्त (नः) हम लोगों को (आशंसय) सच्चे व्यवहार वर्तनेवाले अपराधरहित कीजिए॥५॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो सभास्वामी न्याय से अपने सिंहासन पर बैठकर जैसे गदहा रूखे और खोटे शब्द के उच्चारण से औरों की निन्दा करते हुए जन को दण्ड दे और जो सत्यवादी धार्मिक जन का सत्कार करे जो अन्याय के साथ औरों के पदार्थ को लेते हैं, उनको दण्ड दे के जिसका जो पदार्थ हो, वह उसको दिला देवे, इस प्रकार सनातन न्याय करनेवालों के धर्म में प्रवृत्त पुरुष का सत्कार हम लोग निरन्तर करें॥५॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः स वीरः कीदृश इत्युपदिश्यते॥

Anvay:

हे इन्द्र ! त्वं गर्दभं तत् स्वभावमिवामुया पापया मिथ्याभाषणान्वितया भाषयाऽस्मान्नुवन्तं कपटेन स्तुवन्तं शत्रुं सम्मृण। हे तुविमघेन्द्र सभाध्यक्ष न्यायाधीश ! त्वं स्वकीयेषु सहस्रेषु शुभ्रिषु गोष्वश्वेषु नोस्मानाशंसय प्राप्तन्यायान् कुरु॥५॥

Word-Meaning: - (सम्) सम्यगर्थे (इन्द्र) सेनाध्यक्ष (गर्दभम्) गर्दभस्य स्वभावयुक्तमिव (मृण) हिंस। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (नुवन्तम्) स्तुवन्तम् (पापया) अधर्मरूपया (अमुया) प्रत्यक्षतया वाचा। (आ) समन्तात् (तु) पुनरर्थे। पूर्ववद्दीर्घः। (नः) अस्मान् धर्मकारिणः (इन्द्र) न्यायाधीश (शंसय) सत्याननपराधान् संपादय (गोषु) स्वकीयेषु पृथिव्यादिपदार्थेषु (अश्वेषु) हस्त्यश्वादिषु पशुषु (शुभ्रिषु) शुद्धभावेन धर्मव्यवहारेण गृहीतेषु (सहस्रेषु) बहुषु (तुविमघ) तुवि बहुविधं विद्याधर्मधनं यस्य तत्सम्बुद्धौ। अत्र अन्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः॥५॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यः सभाध्यक्षो न्यायासने स्थित्वा यथा गर्दभतुल्यस्वभावं मूर्खं व्यभिचारिणं पुरुषं कुत्सितं शब्दमुच्चरन्तं तथाऽन्यायमिथ्याभाषणरूपेण साक्ष्येण तिरस्कुर्वन्तं यथायोग्यं दण्डयेत्। ये च सत्यवादिनो धार्मिकास्तेषां सत्कारं च कुर्यात्। यैरन्यायेन परपदार्था गृह्यन्ते तान् दण्डयित्वा ये यस्य पदार्थास्तान् तेभ्यो दापयेत्। एषां सनातनं न्यायाधीशानां धर्मं सदैव समाश्रयेत् तं वयं सततं सत्कुर्याम॥५॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सभेच्या अध्यक्षाने (राजाने) न्यायपूर्वक गाढवाप्रमाणे मूर्ख, व्यभिचारी पुरुषांना, खोटे बोलणाऱ्यांना व इतरांची निंदा करणाऱ्या लोकांना दंड द्यावा व सत्यवादी धार्मिक लोकांचा सत्कार करावा. जे अन्यायाने इतरांचे पदार्थ घेतात त्यांना दंड द्यावा. जो ज्याचा पदार्थ असेल त्याला तो द्यावा. याप्रकारे सनातन न्याय करणाऱ्या धर्मात प्रवृत्त असणाऱ्या पुरुषाचा आम्ही सदैव सत्कार करावा ॥ ५ ॥