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तद्विप्रा॑सो विप॒न्यवो॑ जागृ॒वांसः॒ समि॑न्धते। विष्णो॒र्यत्प॑र॒मं प॒दम्॥

English Transliteration

tad viprāso vipanyavo jāgṛvāṁsaḥ sam indhate | viṣṇor yat paramam padam ||

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Pad Path

तत्। विप्रा॑सः। वि॒प॒न्यवः॑। जा॒गृ॒ऽवांसः॑। सम्। इ॒न्ध॒ते॒। विष्णोः॑। यत्। प॒र॒मम्। प॒दम्॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:22» Mantra:21 | Ashtak:1» Adhyay:2» Varga:7» Mantra:6 | Mandal:1» Anuvak:5» Mantra:21


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

कैसे मनुष्य उक्त पद को प्राप्त होने योग्य हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

Word-Meaning: - (विष्णोः) व्यापक जगदीश्वर का (यत्) जो उक्त (परमम्) सब उत्तम गुणों से प्रकाशित (पदम्) प्राप्त होने योग्य पद है (तत्) उसको (विपन्यवः) अनेक प्रकार के जगदीश्वर के गुणों की प्रशंसा करनेवाले (जागृवांसः) सत्कर्म में जागृत (विप्रासः) बुद्धिमान् सज्जन पुरुष हैं, वे ही (समिन्धते) अच्छे प्रकार प्रकाशित करके प्राप्त होते हैं॥२१॥
Connotation: - जो मनुष्य अविद्या और अधर्माचरणरूप नींद को छोड़कर विद्या धर्माचरण में जाग रहे हैं, वे ही सच्चिदानन्दस्वरूप सब प्रकार से उत्तम सबको प्राप्त होने योग्य निरन्तर सर्वव्यापी विष्णु अर्थात् जगदीश्वर को प्राप्त होते हैं॥२१॥पहिले सूक्त में जो दो पदों के अर्थ कहे थे, उनके सहचारि अश्वि, सविता, अग्नि, देवी, इन्द्राणी, वरुणानी, अग्नायी, द्यावापृथिवी, भूमि, विष्णु और इनके अर्थों का प्रकाश इस सूक्त में किया है, इससे पहिले सूक्त के साथ इस सूक्त की सङ्गति जाननी चाहिये। इसके आगे सायण और विलसन आदि विषय में जो यह सूक्त के अन्त में खण्डन द्योतक पङ्क्ति लिखते हैं, सो न लिखी जायेगी, क्योंकि जो सर्वथा अशुद्ध है, उसको बारंबार लिखना पुनरुक्त और निरर्थक है, जहाँ कहीं लिखने योग्य होगा, वहाँ तो लिखा ही जायेगा, परन्तु इतने लेख से यह अवश्य जानना कि ये टीका वेदों की व्याख्या तो नहीं हैं, किन्तु इनको व्यर्थ दूषित करनेहारी हैं॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

कीदृशा एतत्प्राप्तुमर्हन्तीत्युपदिश्यते।

Anvay:

विष्णोर्जगदीश्वरस्य यत्परमं पदमस्ति तद्विपन्यवो जागृवांसो विप्रासः समिन्धते प्राप्नुवन्ति॥२१॥

Word-Meaning: - (तत्) पूर्वोक्तम् (विप्रासः) मेधाविनः (विपन्यवः) विविधं जगदीश्वरस्य गुणसमूहं पनायन्ति स्तुवन्ति ये ते। अत्र बाहुलकादौणादिको युच् प्रत्ययः। (जागृवांसः) जागरूकाः। अत्र जागर्तेर्लिटः स्थाने क्वसुः। द्विर्वचनप्रकरणे छन्दसि वेति वक्तव्यम्। (अष्टा०वा०६.१.८) अनेन द्विर्वचनाभावश्च। (सम्) सम्यगर्थे (इन्धते) प्रकाशयन्ते (विष्णोः) व्यापकस्य (यत्) कथितम् (परमम्) सर्वोत्तमगुणप्रकाशम् (पदम्) प्रापणीयम्॥२१॥
Connotation: - ये मनुष्या अविद्याधर्माचरणाख्यां निद्रां त्यक्त्वा विद्याधर्माचरणे जागृताः सन्ति त एव सच्चिदानन्दस्वरूपं सर्वोत्तमं सर्वैः प्राप्तुमर्हं नैरन्तर्येण सर्वव्यापिनं विष्णुं जगदीश्वरं प्राप्नुवन्ति॥२१॥पूर्वेसूक्तोक्ताभ्यां पदार्थाभ्यां सहचारिणामश्विसवित्रग्निदेवीन्द्राणीवरुणान्यग्नायीद्यावापृथिवी- भूमिविष्णूनामर्थानामत्र प्रकाशितत्वात् पूर्वसूक्तेन सहास्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - जी माणसे अविद्या व अधर्माचरणरूपी निद्रा सोडून विद्या व धर्माचरणात जागृत असतात, तीच सच्चिदानंदस्वरूप, सर्वोत्तम, सर्वांना प्राप्त होण्यायोग्य निरंतर सर्वव्यापी विष्णू अर्थात जगदीश्वराला प्राप्त करतात. ॥ २१ ॥
Footnote: यापुढे सायण व विल्सन इत्यादीविषयी जी सूक्ताच्या शेवटी खंडन दर्शविणारी ओळ लिहिलेली आहे ती लिहिली जाणार नाही. कारण ते सर्वथा अशुद्ध आहे. ते वारंवार लिहिणे पुनरुक्त व निरर्थक आहे. जेथे लिहिण्यायोग्य असेल तेथे लिहिले जाईलच; परंतु इतके लिहिण्याने हे अवश्य जाणावे की या टीका वेदांच्या व्याख्या तर नाहीत; परंतु त्यांना दूषित करणाऱ्या आहेत. ॥