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यथा॒ पूर्वे॑भ्यो जरि॒तृभ्य॑ इन्द्र॒ मय॑ इ॒वापो॒ न तृष्य॑ते ब॒भूथ॑। तामनु॑ त्वा नि॒विदं॑ जोहवीमि वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं॑ जी॒रदा॑नुम् ॥

English Transliteration

yathā pūrvebhyo jaritṛbhya indra maya ivāpo na tṛṣyate babhūtha | tām anu tvā nividaṁ johavīmi vidyāmeṣaṁ vṛjanaṁ jīradānum ||

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Pad Path

यथा॑। पूर्वे॑भ्यः। ज॒रि॒तृऽभ्यः॑। इ॒न्द्र॒। मयः॑ऽइव। आपः॑। न। तृष्य॑ते। ब॒भूथ॑। ताम्। अनु॑। त्वा॒। नि॒ऽविद॑म्। जो॒ह॒वी॒मि॒। वि॒द्याम॑। इ॒षम्। वृ॒जन॑म्। जी॒रऽदा॑नुम् ॥ १.१७५.६

Rigveda » Mandal:1» Sukta:175» Mantra:6 | Ashtak:2» Adhyay:4» Varga:18» Mantra:6 | Mandal:1» Anuvak:23» Mantra:6


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - हे (इन्द्र) विद्यैश्वर्ययुक्त ! (यथा) जिस प्रकार नित्य विद्या से (पूर्वेभ्यः) प्रथम विद्या अध्ययन किये (जरितृभ्यः) समस्त विद्या गुणों की स्तुति करनेवाले जनों के लिए (मयइव) सुख के समान वा (तृष्यते) तृषा से पीड़ित जन के लिये (आपः) जलों के (न) समान आप (बभूथ) हूजिये, (ताम्) उस (निविदम्) नित्य विद्या के (अनु) अनुकूल (त्वा) आपकी मैं (जीहवीमि) निरन्तर स्तुति करता हूँ और इसीसे हम लोग (इषम्) इच्छासिद्धि (वृजनम्) बल और (जीरदानुम्) आत्मस्वरूप को (विद्याम) प्राप्त होवें ॥ ६ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो ब्रह्मचर्य के साथ शास्त्रज्ञ धर्मात्माओं से विद्या और शिक्षा पाकर औरों को देते हैं, वे सुख से तृप्त होते हुए प्रशंसा को प्राप्त होते हैं और जो विरोध को छोड़ परस्पर उपदेश करते हैं, वे विज्ञान, बल और जीवात्मा-परमात्मा के स्वरूप को जानते हैं ॥ ६ ॥इस सूक्त में राजव्यवहार के वर्णन से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥यह एकसौ पचहत्तरवाँ सूक्त और अठारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह ।

Anvay:

हे इन्द्र यथा निविदा पूर्वेभ्यो जरितृभ्यो मयइव तृष्यतः आपो न त्वं बभूथ तां निविदमनु त्वाहं जोहवीमि। अतो वयमिषं वृजनं जीरदानुञ्च विद्याम ॥ ६ ॥

Word-Meaning: - (यथा) येन प्रकारेण (पूर्वेभ्यः) अधीतपूर्वविद्येभ्यः (जरितृभ्यः) सकलविद्यागुणस्तावकेभ्यः (इन्द्र) विद्यैश्वर्ययुक्त (मयइव) सुखमिव (आपः) जलानि (न) इव (तृष्यते) तृषाक्रान्ताय (बभूथ) भव (ताम्) (अनु) (त्वा) (निविदम्) नित्यविद्याम् (जोहवीमि) भृशं स्तौमि (विद्याम) (इषम्) (वृजनम्) बलम्। वृजनमिति बलना०। निघं० २। ९। (जीरदानुम्) स्वात्मस्वरूपम् ॥ ६ ॥
Connotation: - अत्रोपमालङ्कारः। ये ब्रह्मचर्येणाप्तेभ्यो विद्याशिक्षे प्राप्याऽन्येभ्यः प्रयच्छन्ति ते सुखेन तृप्ताः सन्तो प्रशंसामाप्नुवन्ति। ये विरोधं विहाय परस्परमुपदिशन्ति ते विज्ञानबलं जीवपरमात्मस्वरूपं च जानन्ति ॥ ६ ॥अत्र राजव्यवहारवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥इति पञ्चसप्तत्युत्तरं शततमं सूक्तमष्टादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे ब्रह्मचर्यपूर्वक शास्त्रज्ञ धर्मात्म्यांकडून विद्या व शिक्षण प्राप्त करून इतरांना देतात ते सुखाने तृप्त होऊन प्रशंसेस पात्र ठरतात. जे विरोध सोडून परस्पर उपदेश करतात ते विज्ञान, बल व जीवात्मा, परमात्मा यांच्या स्वरूपाला जाणतात. ॥ ६ ॥