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सेमं नः॒ स्तोम॒मा ग॒ह्युपे॒दं सव॑नं सु॒तम्। गौ॒रो न तृ॑षि॒तः पि॑ब॥

English Transliteration

semaṁ naḥ stomam ā gahy upedaṁ savanaṁ sutam | gauro na tṛṣitaḥ piba ||

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Pad Path

सः। इ॒मम्। नः॒। स्तोम॑म्। आ। ग॒हि॒। उप॑। इ॒दम्। सव॑नम्। सु॒तम्। गौ॒रः। न। तृ॒षि॒तः। पि॒ब॒॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:16» Mantra:5 | Ashtak:1» Adhyay:1» Varga:30» Mantra:5 | Mandal:1» Anuvak:4» Mantra:5


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर भी अगले मन्त्र में इन्द्र के गुणों का उपदेश किया है-

Word-Meaning: - जो उक्त सूर्य्य (नः) हमारे (इमम्) अनुष्ठान किये हुए (स्तोमम्) प्रशंसनीय यज्ञ वा (सवनम्) ऐश्वर्य प्राप्त करानेवाले क्रियाकाण्ड को (न) जैसे (तृषितः) प्यासा (गौरः) गौरगुणविशिष्ट हरिन (उपागहि) समीप प्राप्त होता है, वैसे (सः) वह (इदम्) इस (सुतम्) उत्पन्न किये ओषधि आदि रस को (पिब) पीता है॥५॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे अत्यन्त प्यासे मृग आदि पशु और पक्षी वेग से दौड़कर नदी तालाब आदि स्थान को प्राप्त होके जल को पीते हैं, वैसे ही यह सूर्य्यलोक अपनी वेगवती किरणों से ओषधि आदि को प्राप्त होकर उसके रस को पीता है। सो यह विद्या की वृद्धि के लिये मनुष्यों को यथावत् उपयुक्त करना चाहिये॥५॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनरिन्द्रगुणा उपदिश्यन्ते।

Anvay:

य इन्द्रो नोऽस्माकमिमं स्तोमं सवनं तृषितो गौरो मृगो न इवोपागह्युपागच्छति, स इदं स्तुतमुत्पन्नमोषध्यादिरसं पिब पिबति॥५॥

Word-Meaning: - (सः) इन्द्रः (इमम्) अनुष्ठीयमानम् (नः) अस्माकम् (स्तोमम्) स्तूयते गुणसमूहो यस्तं यज्ञम् (आ) समन्तात् (गहि) गच्छति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् बहुलं छन्दसि इति शपो लुक् च। (उप) सामीप्ये (इदम्) प्रत्यक्षम् (सवनम्) सुवन्त्यैश्वर्य्यं प्राप्नुवन्ति येन तत् क्रियाकाण्डम् (सुतम्) ओषध्यादिरसम् (गौरः) गौरगुणविशिष्टो मृगः (न) जलाशयं प्राप्य जलं पिबतीव (तृषितः) यस्तृष्यति पिपासति सः (पिब) पिबति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च॥५॥
Connotation: - अत्रोपमालङ्कारः। यथाऽत्यन्तं तृषिता मृगादयः पशुपक्षिणो वेगेन धावनं कृत्वोदकाशयं प्राप्य जलं पिबन्ति तथैवैष इन्द्रो वेगवद्भिः किरणैरोषध्यादिकं प्राप्यैतेषां रसं पिबति, मनुष्यैः सोऽयं विद्यावृद्धये यथावदुपयोक्तव्यः॥५॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे अत्यंत तहानेने व्याकुळ झालेले हरिण इत्यादी पशू-पक्षी वेगाने पळतात व नदी किंवा तलावाजवळ जाऊन पाणी पितात, तसेच हा सूर्यलोक आपल्या गतिमान किरणांनी औषधी वगैरे प्राप्त क्रून त्याचा रस पितो. त्यामुळे ही विद्या वाढविण्यासाठी माणसांनी त्याचा उपयोग करून घेतला पाहिजे. ॥ ५ ॥