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उप॑ नः सु॒तमा ग॑हि॒ हरि॑भिरिन्द्र के॒शिभिः॑। सु॒ते हि त्वा॒ हवा॑महे॥

English Transliteration

upa naḥ sutam ā gahi haribhir indra keśibhiḥ | sute hi tvā havāmahe ||

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Pad Path

उप॑। नः॒। सु॒तम्। आ। ग॒हि॒। हरि॑ऽभिः। इ॒न्द्र॒। के॒शिऽभिः॑। सु॒ते। हि। त्वा॒। हवा॑महे॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:16» Mantra:4 | Ashtak:1» Adhyay:1» Varga:30» Mantra:4 | Mandal:1» Anuvak:4» Mantra:4


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अब अगले मन्त्र में इन्द्र शब्द से वायु के गुणों का उपदेश किया है-

Word-Meaning: - (हि) जिस कारण यह (इन्द्र) वायु (केशिभिः) जिनके बहुत से केश अर्थात् किरण विद्यमान हैं, वे (हरिभिः) पदार्थों के हरने वा स्वीकार करनेवाले अग्नि, विद्युत् और सूर्य्य के साथ (नः) हमारे (सुतम्) उत्पन्न किये हुए होम वा शिल्प आदि व्यवहार के (उपागहि) निकट प्राप्त होता है, इससे (त्वा) उसको (सुते) उत्पन्न किये हुए होम वा शिल्प आदि व्यवहारों में हम लोग (हवामहे) ग्रहण करते हैं॥४॥
Connotation: - जो पदार्थ हम लोगों को शिल्प आदि व्यवहारों में उपकारयुक्त करने चाहियें, वे अग्नि विद्युत् और सूर्य वायु ही के निमित्त से प्रकाशित होते तथा जाते आते हैं॥४॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अथेन्द्रशब्देन वायुगुणा उपदिश्यन्ते।

Anvay:

हि यतोऽयमिन्द्रो वायुः केशिभिर्हरिभिः सह नोऽस्माकं सुतमुपागह्युपागच्छति तस्मात्त्वा तं सुते वयं हवामहे॥४॥

Word-Meaning: - (उप) निकटार्थे (नः) अस्माकम् (सुतम्) उत्पादितम् (आ) समन्तात् (गहि) गच्छति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट्। बहुलं छन्दसि इति शपो लुक्। वा छन्दसि इति हेरपित्वादनुनासिकलोपश्च। (हरिभिः) हरणाहरणशीलैर्वेगवद्भिः किरणैः (इन्द्र) वायुः (केशिभिः) केशा बह्व्यो रश्मयो विद्यन्ते येषामग्निविद्युत्सूर्य्याणां तैः सह। क्लिशेरन् लो लोपश्च। (उणा०५.३३) अनेन ‘क्लिश’ धातोरन् प्रत्ययो लकारलोपश्च। ततो भूम्न्यर्थ इनिः। केशी केशा रश्मयस्तैस्तद्वान् भवति काशनाद्वा प्रकाशनाद्वा केशीदं ज्योतिरुच्यते। (निरु०१२.२५) (सुते) उत्पादिते होमशिल्पादिव्यवहारे (हि) यतः (त्वा) तम् (हवामहे) आदद्मः॥४॥
Connotation: - येऽस्माभिः शिल्पव्यवहारादिषूपकर्त्तव्याः पदार्थाः सन्ति, तेऽग्निविद्युत्सूर्य्या वायुनिमित्तेनैव प्रज्वलन्ति गच्छन्त्यागच्छन्ति च॥४॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - जे पदार्थ आम्हाला शिल्प इत्यादी व्यवहारात उपकारक आहेत, ते अग्नी, विद्युत व सूर्य आणि वायूच्याच निमित्ताने प्रकाशित होतात व येत जात राहतात. ॥ ४ ॥