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ता वां॒ वास्तू॑न्युश्मसि॒ गम॑ध्यै॒ यत्र॒ गावो॒ भूरि॑शृङ्गा अ॒यास॑:। अत्राह॒ तदु॑रुगा॒यस्य॒ वृष्ण॑: पर॒मं प॒दमव॑ भाति॒ भूरि॑ ॥

English Transliteration

tā vāṁ vāstūny uśmasi gamadhyai yatra gāvo bhūriśṛṅgā ayāsaḥ | atrāha tad urugāyasya vṛṣṇaḥ paramam padam ava bhāti bhūri ||

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Pad Path

ता। वा॒म्। वास्तू॑नि। उ॒श्म॒सि॒। गम॑ध्यै। यत्र॑। गावः॑। भूरि॑ऽशृङ्गाः। अ॒यासः॑। अत्र॑। अह॑। तत्। उ॒रु॒ऽगा॒यस्य॑। वृष्णः॑। प॒र॒मम्। प॒दम्। अव॑। भा॒ति॒। भूरि॑ ॥ १.१५४.६

Rigveda » Mandal:1» Sukta:154» Mantra:6 | Ashtak:2» Adhyay:2» Varga:24» Mantra:6 | Mandal:1» Anuvak:21» Mantra:6


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - हे शास्त्रवेत्ता विद्वानो ! (यत्र) जहाँ (अयासः) प्राप्त हुए (भूरिशृङ्गाः) बहुत सींगों के समान उत्तम तेजोंवाले (गावः) किरण हैं (ता) उन (वास्तूनि) स्थानों को (वाम्) तुम अध्यापक और उपदेशक परम योगीजनों के (गमध्यै) जाने को हम लोग (उश्मसि) चाहते हैं। जो (उरुगायस्य) बहुत प्रकारों से प्रशंसित (वृष्णः) सुख वर्षानेवाले परमेश्वर का (परमम्) उत्कृष्ट (पदम्) प्राप्त होने योग्य मोक्षपद (भूरिः) अत्यन्त (अव भाति) उत्कृष्टता से प्रकाशमान है (तत्) उसको (अत्राह) यहाँ ही हम लोग चाहते हैं ॥ ६ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जहाँ विद्वान् जन मुक्ति पाते हैं वहाँ कुछ भी अन्धकार नहीं है और वे मोक्ष को प्राप्त हुए प्रकाशमान होते हैं, वही आप्त विद्वानों का मुक्तिपद है सो ब्रह्म सबका प्रकाश करनेवाला है ॥ ६ ॥इस सूक्त में परमेश्वर और मुक्ति का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥यह एकसौ चौवनवाँ सूक्त और चौबीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह ।

Anvay:

हे आप्तौ विद्वांसौ यत्रायासो भूरिशृङ्गा गावः सन्ति ता तानि वास्तूनि वां युवयोर्गमध्यै वयमुश्मसि। यदुरुगायस्य वृष्णः परमेश्वरस्य परमं पदं भूर्यवभाति तदत्राह वयमुश्मसि ॥ ६ ॥

Word-Meaning: - (ता) तानि (वाम्) युवयोरध्यापकोपदेशकयोः परमयोगिनोः (वास्तूनि) वासाऽधिकरणानि (उश्मसि) कामयेमहि (गमध्यै) गन्तुम् (यत्र) यस्मिन् (गावः) किरणाः (भूरिशृङ्गाः) भूरिबहुशृङ्गाणीवोत्कृष्टानि तेजांसि येषु ते (अयासः) प्राप्ताः (अत्र) (अह) (तत्) (उरुगायस्य) बहुधा प्रशंसितस्य (वृष्णः) सुखवर्षकस्य (परमम्) प्रकृष्टम् (पदम्) प्राप्तुमर्हम् (अव) (भाति) प्रकाशते (भूरि) बहु । इमं मन्त्रं यास्कमुनिरेवं व्याचष्टे−तानि वां वास्तूनि कामयामहे गमनाय यत्र गावो भूरिशृङ्गा भूरीति बहुनो नामधेयं प्रभवतीति सतः शृङ्गं श्रयतेर्वा शृणोतेर्वा शम्नातेर्वा शरणायोद्गतमिति वा शिरसो निर्गतमिति वाऽयासोऽयनाः। तत्र तदुरुगायस्य विष्णोर्महागतेः परमं पदं परार्ध्यस्थमवभाति भूरि। पादः पद्यतेस्तन्निधानात्पदं पशुपादप्रकृतिः प्रभागपादः प्रभागपादसामान्यादितराणि पदानीति। निरु० २। ७। ॥ ६ ॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यत्र विद्वांसो मुक्तिं प्राप्नुवन्ति तत्र किञ्चिदप्यन्धकारो नास्ति प्राप्तमोक्षाश्च भास्वरा भवन्ति तदेवाप्तानां मुक्तिपदं ब्रह्म सर्वप्रकाशकमस्तीति ॥ ६ ॥अत्र परमेश्वरमुक्तिपदवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्बोध्या ॥इति चतुःपञ्चाशदुत्तरं शततमं सूक्तं चतुर्विंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जेथे विद्वान लोक मुक्ती प्राप्त करतात तेथे थोडाही अंधकार नसतो. ते मोक्षाला प्राप्त करून प्रकाशमान (उत्कृष्ट) होतात. तेच विद्वानांचे मुक्तिपद आहे. तो ब्रह्म सर्वांचा प्रकाशक आहे. ॥ ६ ॥