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द्र॒वि॒णो॒दाः पि॑पीषति जु॒होत॒ प्र च॑ तिष्ठत। ने॒ष्ट्रादृ॒तुभि॑रिष्यत॥

English Transliteration

draviṇodāḥ pipīṣati juhota pra ca tiṣṭhata | neṣṭrād ṛtubhir iṣyata ||

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Pad Path

द्र॒वि॒णः॒ऽदाः। पि॒पी॒ष॒ति॒। जु॒होत॑। प्र। च॒। ति॒ष्ठ॒त॒। ने॒ष्ट्रात्। ऋ॒तुऽभिः॑। इ॒ष्य॒त॒॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:15» Mantra:9 | Ashtak:1» Adhyay:1» Varga:29» Mantra:3 | Mandal:1» Anuvak:4» Mantra:9


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

यज्ञ करनेवाले मनुष्यों को ऋतुओं में करने योग्य कार्य्यों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

Word-Meaning: - हे मनुष्यो ! जैसे (द्रविणोदाः) यज्ञ का अनुष्ठान करनेवाला विद्वान् मनुष्य यज्ञों में सोम आदि ओषधियों के रस को (पिपीषति) पीने की इच्छा करता है, वैसे ही तुम भी उन यज्ञों को (नेष्ट्रात्) विज्ञान से (जुहोत) देने-लेने का व्यवहार करो तथा उन यज्ञों को विधि के साथ सिद्ध करके (ऋतुभिः) ऋतु-ऋतु के संयोग से सुखों के साथ (प्रतिष्ठत) प्रतिष्ठा को प्राप्त हो और उनकी विद्या को सदा (इष्यत) जानो॥९॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को अच्छे ही काम सीखने चाहिये, दुष्ट नहीं, और सब ऋतुओं में सब सुखों के लिये यथायोग्य कर्म्म करना चाहिये, तथा जिस ऋतु में जो देश स्थिति करने वा जाने-आने योग्य हो, उसमें उसी समय स्थिति वा जाना तथा उस देश के अनुसार खाना-पीना वस्त्रधारणादि व्यवहार करके सब व्यवहार में सुखों को निरन्तर सेवन करना चाहिये॥९॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

यज्ञकर्त्तॄणामृतुषु कर्त्तव्यान्युपदिश्यन्ते।

Anvay:

हे मनुष्या ! यथा द्रविणोदा यज्ञानुष्ठाता विद्वान् मनुष्यो यज्ञेषु सोमादिरसं पिपीषति तथैव यूयमपि तान् यज्ञान् नेष्ट्रात् जुहोत। तत्कृत्वर्त्तुभिर्योगे सुखैः प्रकृष्टतया तिष्ठत प्रतिष्ठध्वं तद्विद्यामिष्यत च॥९॥

Word-Meaning: - (द्रविणोदाः) यज्ञानुष्ठाता मनुष्यः (पिपीषति) सोमादिरसान् पातुमिच्छति। अत्र ‘पीङ्’ धातोः सन् व्यत्ययेन परस्मैपदं च। (जुहोत) दत्तादत्त वा। (प्र) प्रकृष्टार्थे (च) समुच्चयार्थे (तिष्ठत) प्रतिष्ठां प्राप्नुत। अत्र वा च्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति नियमात् समवप्रविभ्यः स्थः। (अष्टा०१.३.२२) इत्यात्मनेपदं न भवति। (नेष्ट्रात्) विज्ञानहेतोः। अत्र णेषृ गतौ इत्यस्मात् सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्। (उणा०४.१५९) इति बाहुलकात् ष्ट्रन् प्रत्ययः। (ऋतुभिः) वसन्तादिभिर्योगे (इष्यत) विजानीत॥९॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः सत्कर्मणोऽनुकरणमेव कर्त्तव्यं, नासत्कर्मणः। सर्वेष्वृतुषु यथायोग्यानि कर्म्माणि कर्त्तव्यानि। यस्मिन्नृतौ यो देशः स्थातुं गन्तुं योग्यस्तत्र स्थातव्यं गन्तव्यं च तत्तद्देशानुसारेण भोजनाच्छादनविहाराः कर्त्तव्याः। इत्यादिभिर्व्यवहारैः सुखानि सततं सेव्यानीति॥९॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी सत्कर्माचे अनुकरण करावे. असत्कर्म करू नये व सर्व ऋतूंमध्ये सर्व सुखासाठी यथायोग्य कर्म केले पाहिजे व ज्या ऋतूमध्ये जे स्थान राहण्यायोग्य असेल व जाण्यायेण्यायोग्य असेल त्यात राहणे व जाणे-येणे आणि त्या स्थानानुसार खाणे, पिणे, वस्त्र नेसणे इत्यादी व्यवहार करून सुखाचे निरंतर सेवन केले पाहिजे. ॥ ९ ॥