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प्रप्र॑ पू॒ष्णस्तु॑विजा॒तस्य॑ शस्यते महि॒त्वम॑स्य त॒वसो॒ न त॑न्दते स्तो॒त्रम॑स्य॒ न त॑न्दते। अर्चा॑मि सुम्न॒यन्न॒हमन्त्यू॑तिं मयो॒भुव॑म्। विश्व॑स्य॒ यो मन॑ आयुयु॒वे म॒खो दे॒व आ॑युयु॒वे म॒खः ॥

English Transliteration

pra-pra pūṣṇas tuvijātasya śasyate mahitvam asya tavaso na tandate stotram asya na tandate | arcāmi sumnayann aham antyūtim mayobhuvam | viśvasya yo mana āyuyuve makho deva āyuyuve makhaḥ ||

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Pad Path

प्रऽप्र॑। पू॒ष्णः। तु॒वि॒ऽजा॒तस्य॑। श॒स्य॒ते॒। म॒हि॒ऽत्वम्। अ॒स्य॒। त॒वसः॑। न। त॒न्द॒ते॒। स्तो॒त्रम्। अ॒स्य॒। न। त॒न्द॒ते॒। अर्चा॑मि। सु॒म्न॒ऽयन्। अ॒हम्। अन्ति॑ऽऊतिम्। म॒यः॒ऽभुव॑म्। विश्व॑स्य। यः। मनः॑। आ॒ऽयु॒यु॒वे। म॒खः। दे॒वः। आ॒ऽयु॒यु॒वे। म॒खः ॥ १.१३८.१

Rigveda » Mandal:1» Sukta:138» Mantra:1 | Ashtak:2» Adhyay:2» Varga:2» Mantra:1 | Mandal:1» Anuvak:20» Mantra:1


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अब चार ऋचावाले एकसौ अड़तीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में पुष्टि करनेहारे की प्रशंसा विषय को कहा है ।

Word-Meaning: - जिस (अस्य) इस (तुविजातस्य) बहुतों में प्रसिद्ध (पूष्णः) प्रजा की रक्षा करनेवाले राजपुरुष का (महित्वम्) बड़प्पन (प्रप्र, शस्यते) अतीव प्रशंसित किया जाता वा जिस (अस्य) इसके (तवसः) बल की (स्तोत्रम्) स्तुति (न) (तन्दते) प्रशंसक जन न नष्ट करते अर्थात् न छोड़ते और विद्या को (न) (तन्दते) न नष्ट करते हैं वा (यः) जो (मखः) विद्या पाये हुए (देवः) विद्वान् (विश्वस्य) संसार के (मनः) अन्तःकरण को (आयुयुवे) सब ओर से बाँधता अर्थात् अपनी ओर खींचता वा जो (मखः) यज्ञ के समान वर्त्तमान सुख का (आयुयुवे) प्रबन्ध बाँधता है उस (अन्त्यूतिम्) अपने निकट रक्षा आदि क्रिया रखने और (मयोभुवम्) सुख की भावना करानेवाले प्रजापोषक का (सुम्नयन्) सुख चाहता हुआ (अहम्) मैं (अर्चामि) सत्कार करता हूँ ॥ १ ॥
Connotation: - जो शुभ अच्छे कर्मों का आचरण करते हैं वे अत्यन्त प्रशंसित होते हैं, जो सुशीलता और नम्रता से सबके चित्त को धर्मयुक्त व्यवहारों में बाँधते हैं, वे ही सबको सत्कार करने योग्य हैं ॥ १ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अथ पुष्टिकर्त्तुः प्रशंसामाह ।

Anvay:

यस्याऽस्य तुविजातस्य पूष्णो महित्वं प्रप्र शस्यते यस्याऽस्य तवसः स्तोत्रं न तन्दते विद्यां च न तन्दते यो मखो देवो विश्वस्य मन आयुयुवे यश्च मखः सुखमायुयुवे तमन्त्यूतिं मयोभुवं पूष्णं सुम्नयन्नहमर्चामि ॥ १ ॥

Word-Meaning: - (प्रप्र) अतिप्रकृष्टे (पूष्णः) प्रजापोषकस्य (तुविजातस्य) बहुषु प्रसिद्धस्य (शस्यते) (महित्वम्) महिमा (अस्य) (तवसः) बलस्य (न) निषेधे (तन्दते) हिनस्ति (स्तोत्रम्) (अस्य) (न) (तन्दते) (अर्चामि) (सुम्नयन्) सुखमिच्छन् (अहम्) (अन्त्यूतिम्) अन्ति निकट ऊतीरक्षणाद्या क्रिया यस्य तम् (मयोभुवम्) सुखंभावुकम् (विश्वस्य) संसारस्य (यः) (मनः) अन्तःकरणम् (आयुयुवे) समन्ताद्बध्नाति (मखः) प्राप्तविद्यः (देवः) विद्वान् (आयुयुवे) (मखः) यज्ञ इव वर्त्तमानः ॥ १ ॥
Connotation: - ये शुभानि कर्माण्याचरन्ति तेऽतिप्रशंसिता भवन्ति ये सुशीलताविनयाभ्यां सर्वेषां चित्तं धर्म्येषु बध्नन्ति त एव सर्वैः सत्कर्त्तव्याः ॥ १ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

या सूक्तात पुष्टी करणारा विद्वान किंवा धार्मिक लोकांच्या प्रशंसेच्या वर्णनाने या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती आहे, हे जाणले पाहिजे.

Word-Meaning: - N/A
Connotation: - जे शुभ कर्मांचे आचरण करतात ते प्रशंसनीय ठरतात. जे सुशीलतेने व नम्रतेने सर्वांच्या चित्तांना धर्मयुक्त व्यवहाराच्या बंधनात बांधतात त्यांचाच सर्वांनी सत्कार केला पाहिजे. ॥ १ ॥