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आ त्वा॒ जुवो॑ रारहा॒णा अ॒भि प्रयो॒ वायो॒ वह॑न्त्वि॒ह पू॒र्वपी॑तये॒ सोम॑स्य पू॒र्वपी॑तये। ऊ॒र्ध्वा ते॒ अनु॑ सू॒नृता॒ मन॑स्तिष्ठतु जान॒ती। नि॒युत्व॑ता॒ रथे॒ना या॑हि दा॒वने॒ वायो॑ म॒खस्य॑ दा॒वने॑ ॥

English Transliteration

ā tvā juvo rārahāṇā abhi prayo vāyo vahantv iha pūrvapītaye somasya pūrvapītaye | ūrdhvā te anu sūnṛtā manas tiṣṭhatu jānatī | niyutvatā rathenā yāhi dāvane vāyo makhasya dāvane ||

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Pad Path

आ। त्वा॒। जुवः॑। र॒र॒हा॒णाः। अ॒भि। प्रयः॑। वायो॒ इति॑। वह॑न्तु। इ॒ह। पू॒र्वऽपी॑तये। सोम॑स्य। ऊ॒र्ध्वा। ते॒। अनु॑। सू॒नृता॑। मनः॑। ति॒ष्ठ॒तु॒। जा॒न॒ती। नि॒युत्व॑ता। रथे॑न। आ। या॒हि॒। दा॒वने॑। वायो॑ इति॑। म॒खस्य॑। दा॒वने॑ ॥ १.१३४.१

Rigveda » Mandal:1» Sukta:134» Mantra:1 | Ashtak:2» Adhyay:1» Varga:23» Mantra:1 | Mandal:1» Anuvak:20» Mantra:1


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अब छः ऋचावाले एकसौ चौतीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् कैसे हों, इस विषय को कहा है ।

Word-Meaning: - हे (वायो) पवन के समान वर्त्तमान विद्वान् ! (इह) इस संसार में (सोमस्य) ओषधि आदि पदार्थों के रस को (पूर्वपीतये) अगले सज्जनों के पीने के समान (पूर्वपीतये) जो पीना है उसके लिये (जुवः) वेगवान् (रारहाणाः) छोड़नेवाले पवन (त्वा) आपको (प्रयः) प्रीतिपूर्वक (अभि, आ, वहन्तु) चारों ओर से पहुँचावें। हे (वायो) ज्ञानवान् पुरुष ! जिस (ते) आपकी (ऊर्ध्वा) उन्नतियुक्त अति उत्तम (सूनृता) प्रिय वाणी (जानती) और ज्ञानवती हुई स्त्री (मनः) मन के (अनु, तिष्ठतु) अनुकूल स्थित हो सो आप (मखस्य) यज्ञ के सम्बन्ध में (दावने) दान करनेवाले के लिए जैसे वैसे (दावने) देनेवाले के लिये (नियुत्वता) जिसमें बहुत घोड़े विद्यमान हैं उस (रथेन) रमण करने योग्य यान से (आ, याहि) आओ ॥ १ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वान् लोग सर्व प्राणियों में प्राण के समान प्रिय होकर अनेक घोड़ों से जुते हुए रथों से जावें-आवें ॥ १ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अथ विद्वांसः कीदृशा भवेयुरित्याह ।

Anvay:

हे वायो विद्वन्निह सोमस्य पूर्वपीतय इव पूर्वपीतये जुवो रारहाणा वायवस्त्वा प्रयोभ्यावहन्तु। हे वायो यस्य ते ऊर्ध्वा सूनृता जानती मनोऽनुतिष्ठतु स त्वं मखस्य दावन इव दावने नियुत्वना रथेना याहि ॥ १ ॥

Word-Meaning: - (आ) समन्तात् (त्वा) त्वाम् (जुवः) वेगवन्तः (रारहाणाः) त्यक्तारः। अत्र तुजादीनामित्यभ्यासदीर्घः। (अभि) (प्रयः) प्रीतिम् (वायो) वायुरिव वर्त्तमान (वहन्तु) प्राप्नुवन्तु (इह) अस्मिन् संसारे (पूर्वपीतये) पूर्वेषां पीतिः पानं तस्यै (सोमस्य) ओषध्यादिरसस्य (पूर्वपीतये) पूर्वेषां पानायेव (ऊर्ध्वा) उत्कृष्टा (ते) तव (अनु) (सूनृता) प्रिया वाक् (मनः) अन्तःकरणम् (तिष्ठतु) (जानती) या जानाति सा स्त्री (नियुत्वता) बहवो नियुतोऽश्वा विद्यन्ते यस्मिंस्तेन (रथेन) रमणीयेन यानेन (आ) समन्तात् (याहि) गच्छ (दावने) दात्रे (वायो) ज्ञानवान् (मखस्य) यज्ञस्य (दावने) दात्रे ॥ १ ॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। विद्वांसः सर्वेषु प्राणिषु प्राणवत् प्रिया भूत्वाऽनेकाश्वयुक्तैर्यानैर्गच्छन्त्वागच्छन्तु च ॥ १ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

या सूक्तात वायूचा दृष्टान्त शूरवीराच्या न्यायविषयक प्रजेच्या कर्माचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती आहे, हे जाणावे.

Word-Meaning: - N/A
Connotation: - भावार्थ- या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. विद्वान लोकांनी प्राण्यांमध्ये प्राणासारखे प्रिय बनावे व अनेक अश्वायुक्त अशा रथाद्वारे जावे-यावे. ॥ १ ॥