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इन्द्र॑: स॒मत्सु॒ यज॑मान॒मार्यं॒ प्राव॒द्विश्वे॑षु श॒तमू॑तिरा॒जिषु॒ स्व॑र्मीळ्हेष्वा॒जिषु॑। मन॑वे॒ शास॑दव्र॒तान्त्वचं॑ कृ॒ष्णाम॑रन्धयत्। दक्ष॒न्न विश्वं॑ ततृषा॒णमो॑षति॒ न्य॑र्शसा॒नमो॑षति ॥

English Transliteration

indraḥ samatsu yajamānam āryam prāvad viśveṣu śatamūtir ājiṣu svarmīḻheṣv ājiṣu | manave śāsad avratān tvacaṁ kṛṣṇām arandhayat | dakṣan na viśvaṁ tatṛṣāṇam oṣati ny arśasānam oṣati ||

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Pad Path

इन्द्रः॑। स॒मत्ऽसु॑। यज॑मानम्। आर्य॑म्। प्र। आ॒व॒त्। विश्वे॑षु। श॒तम्ऽऊ॑तिः। आ॒जिषु॑। स्वः॑ऽमीळ्हेषु। आ॒जिषु॑। मन॑वे। शास॑त्। अ॒व्र॒तान्। त्वच॑म्। कृ॒ष्णाम्। अ॒र॒न्ध॒य॒त्। दक्ष॑म्। न। विश्व॑म्। त॒तृ॒षा॒णम्। ओ॒ष॒ति॒। नि। अ॒र्श॒सा॒नम्। ओ॒ष॒ति॒ ॥ १.१३०.८

Rigveda » Mandal:1» Sukta:130» Mantra:8 | Ashtak:2» Adhyay:1» Varga:19» Mantra:3 | Mandal:1» Anuvak:19» Mantra:8


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर मनुष्यों को कैसा होना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - जो (शतमूतिः) अर्थात् जिससे असंख्यात रक्षा होती वह (इन्द्रः) परम ऐश्वर्यवान् राजा (स्वर्मीढेषु) जिनमें सुख सिञ्चन किया जाता उन (आजिषु) प्राप्त हुए (आजिषु) संग्रामों में धार्मिक शूरवीरों के समान (विश्वेषु) समग्र (समत्सु) संग्राम में (यजमानम्) अभय के देनेवाले (आर्यम्) उत्तम गुण, कर्म, स्वभाववाले पुरुष को (प्रावत्) अच्छे प्रकार पाले वा (मनवे) विचारशील धार्मिक मनुष्य की रक्षा के लिये (अव्रतान्) दुष्ट आचरण करनेवाले डाकुओं को (शासत्) शिक्षा देवे और इनकी (त्वचम्) सम्बन्ध करनेवाली खाल को (कृष्णाम्) खैंचता हुआ (अरन्धयत्) नष्ट करे वा अग्नि जैसे (विश्वम्) सब पदार्थ मात्र को (दक्षन्) जलावे और (ततृषाणम्) पियासे प्राणी को (ओषति) दाहे अति जलन देवे (न) वैसे (अर्शसानम्) प्राप्त हुए शत्रुगण को (न्योषति) निरन्तर जलावे, वही चक्रवर्त्ति राज्य करने योग्य होता है ॥ ८ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को चाहिये कि श्रेष्ठ गुण, कर्म, स्वभावों को स्वीकार और दुष्टों के गुण, कर्म, स्वभावों का त्याग कर श्रेष्ठों को रक्षा और दुष्टों को ताड़ना देकर धर्म में राज्य की शासना करें ॥ ८ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनर्मनुष्यैः कीदृशैर्भवितव्यमित्याह ।

Anvay:

यश्शतमूतिरिन्द्रः स्वर्मीढेष्वाजिष्वाजिषु धार्मिकाः शूरा इव विश्वेषु समत्सु यजमानमार्य्यं प्रावत् मनवे व्रतान् शासदेषां त्वचं कृष्णां कुर्वन्नरन्धयदग्निर्विश्वं दक्षंस्ततृषाणमोषति नार्शसानं न्योषति स एव साम्राज्यं कर्त्तुमर्हति ॥ ८ ॥

Word-Meaning: - (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् राजा (समत्सु) संग्रामेषु (यजमानम्) अभयस्य दातारम् (आर्यम्) उत्तमगुणकर्मस्वभावम् (प्र) प्रकृष्टे (आवत्) रक्षेत् (विश्वेषु) समग्रेषु (शतमूतिः) शतमसंख्याता ऊतयो रक्षा यस्मात् सः (आजिषु) प्राप्तेषु (स्वर्मीढेषु) स्वः सुखं मिह्यते सिच्यते येषु तेषु (आजिषु) संग्रामेषु (मनवे) मननशीलधार्मिकमनुष्यरक्षणाय (शासत्) शिष्यात् (अव्रतान्) दुष्टाचारान् दस्यून् (त्वचम्) सम्पर्कमिन्द्रियम् (कृष्णाम्) कर्षिताम् (अरन्धयत्) हिंस्यात् (दक्षन्) दहेत्। अत्र वाच्छन्दसीति भस्त्वं न। (न) इव (विश्वम्) सर्वम् (ततृषाणम्) प्राप्ततृषम् (ओषति) (नि) (अर्शसानम्) प्राप्तं सत् (ओषति) दहेत् ॥ ८ ॥
Connotation: - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्यैरार्यगुणकर्मस्वभावान् स्वीकृत्य दस्युगुणकर्मस्वभावान् विहाय श्रेष्ठान् संरक्ष्य दुष्टान् संदण्ड्य धर्मेण राज्यं शासनीयम् ॥ ८ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. माणसांनी श्रेष्ठ गुण, कर्म स्वभावाचा स्वीकार करून दुष्टांच्या गुण, कर्म, स्वभावाचा त्याग करून श्रेष्ठांचे रक्षण व दुष्टांचे ताडन करून धर्मानुसार राज्य चालवावे. ॥ ८ ॥