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दा॒दृ॒हा॒णो वज्र॒मिन्द्रो॒ गभ॑स्त्यो॒: क्षद्मे॑व ति॒ग्ममस॑नाय॒ सं श्य॑दहि॒हत्या॑य॒ सं श्य॑त्। सं॒वि॒व्या॒न ओज॑सा॒ शवो॑भिरिन्द्र म॒ज्मना॑। तष्टे॑व वृ॒क्षं व॒निनो॒ नि वृ॑श्चसि पर॒श्वेव॒ नि वृ॑श्चसि ॥

English Transliteration

dādṛhāṇo vajram indro gabhastyoḥ kṣadmeva tigmam asanāya saṁ śyad ahihatyāya saṁ śyat | saṁvivyāna ojasā śavobhir indra majmanā | taṣṭeva vṛkṣaṁ vanino ni vṛścasi paraśveva ni vṛścasi ||

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Pad Path

दा॒दृ॒हा॒णः। वज्र॑म्। इन्द्रः॑। गभ॑स्त्योः। क्षद्म॑ऽइव। ति॒ग्मम्। अस॑नाय। सम्। श्य॒त्। अ॒हि॒ऽहत्या॑य। सम्। श्य॒त्। स॒म्ऽवि॒व्या॒नः। ओज॑सा। शवः॑ऽभिः। इ॒न्द्र॒। म॒ज्मना॑। तष्टा॑ऽइव। वृ॒क्षम्। व॒निनः॑। नि। वृ॒श्च॒सि॒। प॒र॒श्वाऽइ॑व। नि। वृ॒श्च॒सि॒ ॥ १.१३०.४

Rigveda » Mandal:1» Sukta:130» Mantra:4 | Ashtak:2» Adhyay:1» Varga:18» Mantra:4 | Mandal:1» Anuvak:19» Mantra:4


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

इस संसार में कौन अच्छी शोभा को प्राप्त होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - हे विद्वान् ! आप जैसे सूर्य (अहिहत्याय) मेघ के मारने को (तिग्मम्) तीव्र अपने किरणरूपी वज्र को (सं, श्यत्) तीक्ष्ण करता वैसे (गभस्त्योः) अपनी भुजाओं के (क्षद्मेव) जल के समान (असनाय) फेंकने के लिये तीव्र (वज्रम्) शस्त्र को निरन्तर धारण करके (दादृहाणः) दोषों का विनाश करते (इन्द्रः) और विद्वान् होते हुए शत्रुओं को (सं, श्यत्) अति सूक्ष्म करते अर्थात् उनका विनाश करते वा हे (इन्द्र) दुष्टों का दोष नाशनेवाले ! आप (वृक्षम्) वृक्ष को (मज्मना) बल से (तष्टेव) जैसे बढ़ई आदि काटनेहारा वैसे (ओजसा) पराक्रम और (शवोभिः) सेना आदि बलों के साथ (संविव्यानः) अच्छे प्रकार प्राप्त होते हुए (वनिनः) वन वा बहुत किरणें जिनके विद्यमान उनके समान दोषों को (नि, वृश्चसि) निरन्तर काटते वा (परश्वेव) जैसे फरसा से कोई पदार्थ काटता वैसे अविद्या अर्थात् मूर्खपन को अपने ज्ञान से (नि, वृश्चसि) काटते हो, वैसे हम लोग भी करें ॥ ४ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य प्रमाद और आलस्य आदि दोषों को अलग कर संसार में गुणों को निरन्तर धारण करते हैं, वे सूर्य की किरणों के समान यहाँ अच्छी शोभा को प्राप्त होते हैं ॥ ४ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

केऽत्र सुशोभन्त इत्याह ।

Anvay:

हे विद्वन् भवान् यथा सूर्योऽहिहत्याय तिग्मं वज्रं संश्यत् तथा गभस्त्योः क्षद्मेवासनाय तिग्मं वज्रं निधाय दादृहाणः इन्द्रस्सन् शत्रून् संश्यत्। हे इन्द्र त्वं वृक्षं मज्मना तष्टेवौजसा शवोभिः सह संविव्यानस्सन् वनिन इव दोषान् निवृश्चसि परश्वेवाविद्यां निवृश्चसि तथा वयमपि कुर्याम ॥ ४ ॥

Word-Meaning: - (दादृहाणः) दोषान् हिंसन्। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदं, तुजादित्वाद्दैर्घ्यं, बहुलं छन्दसीति शपः श्लुः। (वज्रम्) तीव्रं शस्त्रं गृहीत्वा (इन्द्रः) विद्वान् (गभस्त्योः) बाह्वोः। गभस्तीति बाहुना०। निघं० २। ४। (क्षद्मेव) उदकमिव (तिग्मम्) तीव्रम् (असनाय) प्रक्षेपणाय (सम्) सम्यक् (श्यत्) तनूकरोति (अहिहत्याय) मेघहननाय (सम्) (श्यत्) (संविव्यानः) सम्यक् प्राप्नुवन् (ओजसा) पराक्रमेण (शवोभिः) सेनाद्यैर्बलैः (इन्द्र) दुष्टदोषविदारक (मज्मना) बलेन (तष्टेव) यथा छेत्ता (वृक्षम्) (वनिनः) वनानि बहवो रश्मयो विद्यन्ते येषां त इव (नि) (वृश्चसि) छिनत्सि (परश्वेव) यथा (परशुना) (नि) नितराम् (वृश्चसि) छिनत्सि ॥ ४ ॥
Connotation: - अत्रोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः प्रमादालस्यादीन् दोषान् पृथक्कृत्य जगति गुणान्निदधति ते सूर्यरश्मय इवेह संशोभन्ते ॥ ४ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी माणसे प्रमाद व आळस इत्यादी दोष दूर करून या जगामध्ये गुण धारण करतात ती सूर्य रश्मीप्रमाणे सुशोभित होतात. ॥ ४ ॥