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अ॒स्माकं॑ व॒ इन्द्र॑मुश्मसी॒ष्टये॒ सखा॑यं वि॒श्वायुं॑ प्रा॒सहं॒ युजं॒ वाजे॑षु प्रा॒सहं॒ युज॑म्। अ॒स्माकं॒ ब्रह्मो॒तयेऽवा॑ पृ॒त्सुषु॒ कासु॑ चित्। न॒हि त्वा॒ शत्रु॒: स्तर॑ते स्तृ॒णोषि॒ यं विश्वं॒ शत्रुं॑ स्तृ॒णोषि॒ यम् ॥

English Transliteration

asmākaṁ va indram uśmasīṣṭaye sakhāyaṁ viśvāyum prāsahaṁ yujaṁ vājeṣu prāsahaṁ yujam | asmākam brahmotaye vā pṛtsuṣu kāsu cit | nahi tvā śatruḥ starate stṛṇoṣi yaṁ viśvaṁ śatruṁ stṛṇoṣi yam ||

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Pad Path

अ॒स्माक॑म्। वः॒। इन्द्र॑म्। उ॒श्म॒सि॒। इ॒ष्टये॑। सखा॑य। वि॒श्वऽआ॑युम्। प्र॒ऽसह॑म्। युज॑म्। वाजे॑षु। प्र॒ऽसह॑म्। युज॑म्। अ॒स्माक॑म्। ब्रह्म॑। ऊ॒तये॑। अव॑। पृ॒त्सुषु॑। कासु॑। चि॒त्। न॒हि। त्वा॒। शत्रुः॑। स्तर॑ते। स्तृ॒णोषि॑। यम्। विश्व॑म्। शत्रु॑म्। स्तृ॒णोषि॑। यम् ॥ १.१२९.४

Rigveda » Mandal:1» Sukta:129» Mantra:4 | Ashtak:2» Adhyay:1» Varga:16» Mantra:4 | Mandal:1» Anuvak:19» Mantra:4


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर मनुष्यों को किनके साथ क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग (अस्माकम्) हमारे और (वः) तुम्हारे (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्य्ययुक्त वा (वाजेषु) राज जनों को प्राप्त होने योग्य (पृत्सुषु, कासु, चित्) किन्हीं सेनाओं में (प्रासहम्) उत्तमता से सहनशील (युजम्) और योगाभ्यासयुक्त धर्मात्मा पुरुष के समान (प्रासहम्) अतीव सहने (युजम्) और योग करनेवाले (विश्वायुम्) समग्र शुभ गुणों को पाये हुए (सखायम्) मित्र जन की (इष्टये) चाहे हुए पदार्थ की प्राप्ति के लिये (उश्मसि) कामना करते हैं, वैसे तुम भी कामना करो। हे विद्वान् ! (अस्माकम्) हमारी (ऊतये) रक्षा आदि होने के लिए आप (ब्रह्म) वेद की (अव) रक्षा करो, ऐसे हुए पर (यम्) जिस (विश्वम्) समग्र (शत्रुम्) शत्रुगण को (स्तृणोषि) आच्छादन करते अर्थात् अपने प्रताप से ढाँपते और (यम्) जिस विरोध करनेवाले को (स्तृणोषि) ढाँपते अर्थात् अपने प्रचण्ड प्रताप से रोकते वह (शत्रुः) शत्रु (त्वा) आपको (नहि) नहीं (स्तरते) ढाँपता है ॥ ४ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जितना सामर्थ्य हो सके उतने से बहुत मित्र करने को उत्तम यत्न करें परन्तु अधर्मी दुष्ट जन मित्र न करने चाहिये और न दुष्टों में मित्रपन का आचरण करना चाहिये, ऐसे हुए पर शत्रुओं का बल नहीं बढ़ता है ॥ ४ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनर्मनुष्यैः कैः सह किं कर्त्तव्यमित्याह ।

Anvay:

हे मनुष्या यथा वयमस्माकं वो युष्माकं चेन्द्रं परमैश्वर्य्ययुक्तं वाजेषु पृत्सुषु कासु चित् प्रासहं युजमिव प्रासहं युजं विश्वायुं सखायमिष्टय उश्मसि तथा यूयमपि कामयध्वम्। हे विद्वन्नस्माकमूतये त्वं ब्रह्माऽव। एवं सति यं विश्वं स्तृणोषि यं च विरोधिनं स्तृणोषि स शत्रुस्त्वा नहि स्तरते ॥ ४ ॥

Word-Meaning: - (अस्माकम्) (वः) युष्माकम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यम् (उश्मसि) कामयेमहि (इष्टये) इष्टप्राप्तये (सखायम्) मित्रम् (विश्वायुम्) प्राप्तसमग्रशुभगुणम् (प्रासहम्) प्रकृष्टतया सहनशीलम् (युजम्) योगयुक्तम् (वाजेषु) राजजनैः प्राप्तव्येषु (प्रासहम्) अतीवसोढारम् (युजम्) योक्तारम् (अस्माकम्) (ब्रह्म) वेदम् (ऊतये) रक्षाद्याय (अव) रक्ष। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (पृत्सुषु) संग्रामेषु। पृत्सुरिति संग्रामना०। निघं० २। १७। (कासु) (चित्) (नहि) (त्वा) त्वाम् (शत्रुः) (स्तरते) स्तृणोत्याच्छादयति। अत्र व्यत्ययेन शप्। (स्तृणोषि) आच्छादयसि (यम्) (विश्वम्) समग्रम् (शत्रुम्) विरोधिनम् (स्तृणोषि) आच्छादयसि (यम्) ॥ ४ ॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यावच्छक्यं तावद्बहुमित्राणि कर्त्तुं प्रयतितव्यम्। परन्तु नाऽधार्मिकाः सखायः कार्य्याः न च दुष्टेषु मित्रता समाचरणीया। एवं सति शत्रूणां बलं नैव वर्द्धते ॥ ४ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी जितके सामर्थ्य असेल तितके मित्र बनविण्याचे प्रयत्न करावेत. धर्महीन दुष्ट लोकांशी मैत्री करू नये व दुष्टांशी मित्रत्वाच्या नात्याने वागू नये. असे वागल्याने शत्रूचे बळ वाढत नाही. ॥ ४ ॥