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स्तम्भी॑द्ध॒ द्यां स ध॒रुणं॑ प्रुषायदृ॒भुर्वाजा॑य॒ द्रवि॑णं॒ नरो॒ गोः। अनु॑ स्व॒जां म॑हि॒षश्च॑क्षत॒ व्रां मेना॒मश्व॑स्य॒ परि॑ मा॒तरं॒ गोः ॥

English Transliteration

stambhīd dha dyāṁ sa dharuṇam pruṣāyad ṛbhur vājāya draviṇaṁ naro goḥ | anu svajām mahiṣaś cakṣata vrām menām aśvasya pari mātaraṁ goḥ ||

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Pad Path

स्तम्भी॑त्। ह॒। द्याम्। सः। ध॒रुण॑म्। प्रु॒षा॒य॒त्। ऋ॒भुः। वाजा॑य। द्रवि॑णन्। नरः॑। गोः। अनु॑। स्व॒ऽजाम्। म॒हि॒षः। च॒क्ष॒त॒। व्राम्। मेना॑म्। अश्व॑स्य। परि॑। मा॒तर॑म्। गोः ॥ १.१२१.२

Rigveda » Mandal:1» Sukta:121» Mantra:2 | Ashtak:1» Adhyay:8» Varga:24» Mantra:2 | Mandal:1» Anuvak:18» Mantra:2


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - जैसे (महिषः) बड़ा सूर्य्य (गौः) भूमि का धारण करनेवाला है, वैसे (ऋभुः) सकल विद्याओं से युक्त आप्तबुद्धि मेधावी (नरः) धर्म विद्या की प्राप्ति करानेवाला सज्जन (वाजाय) विज्ञान वा अन्न के लिये (अश्वस्य) व्याप्त होने योग्य राज्य की (स्वजाम्) आपसे उत्पन्न की गई (व्राम्) स्वीकार करने के योग्य (मातरम्) माता के समान पालनेवाली (मेनाम्) विद्या और अच्छी शिक्षा से पाई हुई वाणी को (परि, चक्षत) सब ओर से कहे वा जैसे सूर्य्य (द्याम्) प्रकाश को (स्तम्भीत्) धारण करे वैसे (स, ह) वही (गोः) पृथिवी पर (द्रविणम्) धन को बढ़ा खेत को (धरुणम्) जल के समान (अनु, प्रुषायत्) सींचा करें ॥ २ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो आप्त अर्थात् उत्तम शास्त्री विद्वान् के सङ्ग से विद्या, विनय और न्याय आदि का धारण करे वह सुख से बढ़े और बड़ा सत्कार करने योग्य हो ॥ २ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह ।

Anvay:

यथा महिषः सूर्यो गोर्धर्त्ताऽस्ति तथा ऋभुर्नरो वाजायाश्वस्य स्वजां व्रां मातरं मेनां परि चक्षत यथा वा स सूर्य्यो द्यां स्तम्भीत्तथा सह गोर्मध्ये द्रविणं वर्धयित्वा क्षेत्रं धरुणमिवानु प्रुषायत् ॥ २ ॥

Word-Meaning: - (स्तम्भीत्) धरेत्। अडभावः। (ह) खलु (द्याम्) प्रकाशम् (सः) मनुष्यः (धरुणम्) उदकम्। धरुणमित्युदकनाम०। निघं० १। १२। (प्रुषायत्) प्रुष्णीयात् सिञ्चेत्। अत्र शायच्। (ऋभुः) सकलविद्याजातप्रज्ञो मेधावी (वाजाय) विज्ञानायान्नाय वा (द्रविणम्) धनम् (नरः) धर्मविद्यानेता (गोः) पृथिव्याः (अनु) (स्वजाम्) स्वात्मजनिताम् (महिषः) महान्। महिष इति महन्ना०। निघं० ३। ३। (चक्षत) चक्षीत। अत्र शपोऽलुक्। (व्राम्) वरीतुमर्हाम्। वृञ् धातोर्घञर्थे कः। (मेनाम्) विद्यासुशिक्षाभ्यां लब्धां वाचम् (अश्वस्य) व्याप्तुमर्हस्य राज्यस्य (परि) सर्वतः (मातरम्) मातृवत्पालिकाम् (गोः) भूमेः ॥ २ ॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। य आप्तविद्वत्सङ्गेन विद्यां विनयन्यायादिकं च धरेत्स सुखेन वर्धेत महान् पूज्यश्च स्यात् ॥ २ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो आप्त अर्थात उत्तम शास्त्री विद्वानांकडून विद्या, विनय व न्याय इत्यादी धारण करतो. तो सुखाने वाढतो व पूजनीय ठरतो. ॥ २ ॥