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त्वं नो॑ अ॒स्या इ॑न्द्र दु॒र्हणा॑याः पा॒हि व॑ज्रिवो दुरि॒ताद॒भीके॑। प्र नो॒ वाजा॑न्र॒थ्यो॒३॒॑अश्व॑बुध्यानि॒षे य॑न्धि॒ श्रव॑से सू॒नृता॑यै ॥

English Transliteration

tvaṁ no asyā indra durhaṇāyāḥ pāhi vajrivo duritād abhīke | pra no vājān rathyo aśvabudhyān iṣe yandhi śravase sūnṛtāyai ||

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Pad Path

त्वम्। नः॒। अ॒स्याः। इ॒न्द्र॒। दुः॒ऽहना॑याः। पा॒हि। व॒ज्रि॒ऽवः॒। दुः॒ऽइ॒तात्। अ॒भीके॑। प्र। नः॒। वाजा॑न्। र॒थ्यः॑। अश्व॑ऽबुध्यान्। इ॒षे। य॒न्धि॒। श्रव॑से। सू॒नृता॑यै ॥ १.१२१.१४

Rigveda » Mandal:1» Sukta:121» Mantra:14 | Ashtak:1» Adhyay:8» Varga:26» Mantra:4 | Mandal:1» Anuvak:18» Mantra:14


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - (वज्रिवः) जिसकी प्रशंसित विशेष ज्ञानयुक्त नीति विद्यमान सो (इन्द्र) अधर्म का विनाश करनेहारे हे सेनाध्यक्ष ! (रथ्यः) रथ का ले जानेवाला होता हुआ (त्वम्) तूँ (अभीके) संग्राम में (अस्याः) इस प्रत्यक्ष (दुर्हणायाः) दुःख से मारने योग्य शत्रुओं की सेना और (दुरितात्) दुष्ट आचरण से (नः) हम लोगों की (पाहि) रक्षा कर तथा (इषे) इच्छा (श्रवसे) सुनना वा अन्न और (सूनृतायै) उत्तम सत्य तथा प्रिय वाणी के लिये (नः) हम लोगों के (अश्वबुध्यान्) अन्तरिक्ष में हुए अग्नि आदि पदार्थों को चलाने वा बढ़ाने को जो जानते उन्हें और (वाजान्) विशेष ज्ञान वा वेगयुक्त सम्बन्धियों को (प्र, यन्धि) भली-भाँति दे ॥ १४ ॥
Connotation: - सेनाधीश को चाहिये कि अपनी सेना को शत्रु के मारने से और दुष्ट आचरण से अलग रक्खे तथा वीरों के लिये बल तथा उनकी इच्छा के अनुकूल बल के बढ़ानेवाले पीने योग्य पदार्थ तथा पुष्कल अन्न दे, उनको प्रसन्न और शत्रुओं को अच्छे प्रकार जीत कर प्रजा की निरन्तर रक्षा करे ॥ १४ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह ।

Anvay:

हे वज्रिव इन्द्र रथस्त्वमभीकेऽस्या दुर्हणाया दुरिताच्च नः पाहि। इषे श्रवसे सूनृतायै नोऽस्माकमश्वबुध्यान् वाजान् सुखं प्रयन्धि ॥ १४ ॥

Word-Meaning: - (त्वम्) (नः) अस्मान् (अस्याः) प्रत्यक्षायाः (इन्द्र) अधर्मविदारक (दुर्हणायाः) दुःखेन हन्तुं योग्यायाः शत्रुसेनायाः (पाहि) (वज्रिवः) प्रशस्ता वज्रयो विज्ञानयुक्ता नीतयो विद्यन्तेऽस्य तत्संबुद्धौ। वज धातोरौणादिक इः प्रत्ययो रुडागमश्च ततो मतुप् च। (दुरितात्) दुष्टाचारात् (अभीके) संग्रामे। अभीक इति संग्रामना०। निघं० २। १७। (प्र) (नः) अस्माकम् (वाजान्) विज्ञानवेगयुक्तान् संबन्धिनः (रथ्यः) रथस्य वोढा सन् (अश्वबुध्यान्) अश्वानन्तरिक्षे भवानग्न्यादीन् चालयितुं वर्द्धितुं बुध्यन्ते तान् (इषे) इच्छायै (यन्धि) यच्छ (श्रवसे) श्रवणायान्नाय वा। श्रव इत्यन्नना०। निघं० २। ७। (सूनृतायै) उत्तमायै प्रियसत्यवाचे ॥ १४ ॥
Connotation: - सेनाधीशेन स्वसेना शत्रुहननाद्दुष्टाचाराच्च पृथग्रक्षणीया वीरेभ्यो बलमिच्छानुकूलं बलवर्द्धकं पेयं पुष्कलमन्नं च प्रदाय हर्षयित्वा शत्रून् विजित्य प्रजाः सततं पालनीयाः ॥ १४ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - सेनाधीशाने आपल्या सेनेला शत्रूंकडून हनन व दुष्ट आचरण यांच्यापासून दूर ठेवावे. वीरांचे बल व त्यांच्या इच्छेनुसार बल वाढविणारे खाण्यापिण्याचे पदार्थ द्यावेत. त्यांना प्रसन्न ठेवून शत्रूंना चांगल्या प्रकारे जिंकून प्रजेचे सतत रक्षण करावे. ॥ १४ ॥