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उ॒त स्या वां॒ मधु॑म॒न्मक्षि॑कारप॒न्मदे॒ सोम॑स्यौशि॒जो हु॑वन्यति। यु॒वं द॑धी॒चो मन॒ आ वि॑वास॒थोऽथा॒ शिर॒: प्रति॑ वा॒मश्व्यं॑ वदत् ॥

English Transliteration

uta syā vām madhuman makṣikārapan made somasyauśijo huvanyati | yuvaṁ dadhīco mana ā vivāsatho thā śiraḥ prati vām aśvyaṁ vadat ||

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Pad Path

उ॒त। स्या। वा॒म्। मधु॑ऽमत्। मक्षि॑का। अ॒र॒प॒त्। मदे॑। सोम॑स्य। औ॒शि॒जः। हु॒व॒न्य॒ति॒। यु॒वम्। द॒धी॒चः। मनः॑। आ। वि॒वा॒स॒थः॒। अथ॑। शिरः॑। प्रति॑। वा॒म्। अश्व्य॑म्। व॒द॒त् ॥ १.११९.९

Rigveda » Mandal:1» Sukta:119» Mantra:9 | Ashtak:1» Adhyay:8» Varga:21» Mantra:4 | Mandal:1» Anuvak:17» Mantra:9


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - हे मङ्गलयुक्त राजा और प्रजाजनो ! (युवम्) तुम दोनों जो (औशिजः) मनोहर उत्तम पुरुष का पुत्र संन्यासी (मदे) मद के निमित्त प्रवर्त्तमान (स्या) वह (मक्षिका) शब्द करनेवाली माखी जैसे (अरपत्) गूँजती है वैसे (वाम्) तुम दोनों को (मधुमत्) मधुमत् अर्थात् जिसमें प्रशंसित गुण है, उस व्यवहार के तुल्य (हुवन्यति) अपने को देते-लेते चाहता है उस (सोमस्य) धर्म्म की प्रेरणा करने और (दधीचः) विद्या धर्म की धारणा करनेहारे के तीर से (मनः) विज्ञान को (आ, विवासथः) अच्छे प्रकार सेवो (अथ) इसके अनन्तर (उत) तर्कवितर्क से वह (वाम्) तुम दोनों के प्रति प्रीति से इस ज्ञान को और (अश्व्यम्) विद्या में व्याप्त हुए विद्वानों में उत्तम (शिरः) शिर के समान प्रशंसित व्याख्यान को (प्रति, वदत्) कहे ॥ ९ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे माखी पृथिवी में उत्पन्न हुए वृक्ष वनस्पतियों से रस, जिसको सहत कहते हैं उसको, लेकर अपने निवासस्थान में इकट्ठा कर आनन्द करती है, वैसे ही योगविद्या के ऐश्वर्य्य को प्राप्त सत्य उपदेश से सुख का विधान करनेहारे ब्रह्म-विचार में स्थिर विद्वान् संन्यासी के समीप से सत्यशिक्षा को सुन, मान और विचार के सर्वदा तुम लोग सुखी होओ ॥ ९ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह ।

Anvay:

हे अश्विनौ माङ्गलिकौ राजप्रजाजनौ युवं युवां य औशिजः परिव्राड् मदे प्रवर्त्तमाना स्या मक्षिका यथारपत्तथा वां मधुमद्धुवन्यति तस्य सोमस्य दधीचः सकाशान्मन आविवासथः। अथोत स वां प्रीत्यैतदश्व्यं सततं प्रति वदत् ॥ ९ ॥

Word-Meaning: - (उत) अपि (स्या) असौ (वाम्) युवाम् (मधुमत्) प्रशस्ता मधुरा मधवो गुणा विद्यन्ते यस्मिन् तत् (मक्षिका) मशति शब्दयति या सा मक्षिका। हनिमशिभ्यां सिकन्। उ० ४। १५४। इति मश धातोः सिकन्। (अरपत्) रपति गुञ्जति (मदे) हर्षे (सोमस्य) धर्मप्रेरकस्य (औशिजः) कमनीयस्य पुत्रः (हुवन्यति) आत्मनो हुवनं दानमादानं चेच्छति। अत्र हुवनशब्दात् क्यचि वाच्छन्दसीतीत्वाभावेऽल्लोपः। (युवम्) युवाम् (दधीचः) विद्याधर्मधारकानञ्चति विज्ञापयति तस्य सकाशात् (मनः) विज्ञानम् (आ) (विवासथः) सेवेथाम् (अथ) आनन्तर्ये। निपातस्य चेति दीर्घः। (शिरः) शिर उत्तमाङ्गवत् प्रशस्तम् (प्रति) (वाम्) युवाम् (अश्व्यम्) अश्वेषु व्याप्तविद्येषु साधु (वदत्) वदेत् ॥ ९ ॥
Connotation: - अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या तथा मक्षिकाः पार्थिवेभ्यो रसं गृहीत्वा वसतौ संचित्यानन्दन्ति तथैव योगविद्यैश्वर्योपपन्नस्य सत्योपदेशेन सुखे विधातुर्ब्रह्मनिष्ठस्य विदुषः संन्यासिनः समीपात् सत्यां शिक्षां श्रुत्वा मत्वा निदिध्यास्य सदा यूयं सुखिनो भवेत ॥ ९ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात लुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जशी मधमाशी पृथ्वीवरील वनस्पतींचा रस (मध) आपल्या निवासस्थानी एकत्र करून आनंदित असते तसेच योगविद्येचे ऐश्वर्य प्राप्त करून सत्य उपदेशाने सुखाचे विधान करणाऱ्या, ब्रह्मविचारात स्थिर असलेल्या विद्वान संन्याशाकडून सत्य शिकवण ऐकून, मानून व तसे वागून तुम्ही लोक सदैव सुखी व्हा. ॥ ९ ॥