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परि॑विष्टं जाहु॒षं वि॒श्वत॑: सीं सु॒गेभि॒र्नक्त॑मूहथू॒ रजो॑भिः। वि॒भि॒न्दुना॑ नासत्या॒ रथे॑न॒ वि पर्व॑ताँ अजर॒यू अ॑यातम् ॥

English Transliteration

pariviṣṭaṁ jāhuṣaṁ viśvataḥ sīṁ sugebhir naktam ūhathū rajobhiḥ | vibhindunā nāsatyā rathena vi parvatām̐ ajarayū ayātam ||

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Pad Path

परि॑ऽविष्टम्। जा॒हु॒षम्। वि॒श्वतः॑। सी॒म्। सु॒ऽगेभिः॑। नक्त॑म्। ऊ॒ह॒थुः॒। रजः॑ऽभिः। वि॒ऽभि॒न्दुना॑। ना॒स॒त्या॒। रथे॑न। वि। पर्व॑तान्। अ॒ज॒र॒यू इति॑। अ॒या॒त॒म् ॥ १.११६.२०

Rigveda » Mandal:1» Sukta:116» Mantra:20 | Ashtak:1» Adhyay:8» Varga:11» Mantra:5 | Mandal:1» Anuvak:17» Mantra:20


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - हे (नासत्या) सत्य धर्म के पालनेहारे सभासेनाधीशो ! तुम दोनों जैसे (अजरयू) जीर्णता आदि दोषों से रहित सूर्य और चन्द्रमा (सुगेभिः) जिनमें कि सुख से गमन हो उन मार्ग और (रजोभिः) लोकों के साथ (नक्तम्) रात्रि और (पर्वतान्) मेघ वा पहाड़ों को यथायोग्य व्यवहारों में लाते हैं, वैसे (विभिन्दुना) विविध प्रकार से छिन्न-भिन्न करनेवाले (रथेन) रथ से सेना को यथायोग्य कार्य में (ऊहथुः) पहुँचाओ, (विश्वतः) सब ओर से (सीम्) मर्यादा को (परिविष्टम्) व्याप्त होओ, (जाहुषम्) प्राप्त होने योग्य नगरादि के राज्य को पाकर पर्वत के तुल्य शत्रुओं को (वि, आयातम्) विभेद कर प्राप्त होओ ॥ २० ॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे राजा के सभासद् जन धर्म के अनुकूल मार्गों से राज्य पाकर किला में वा पर्वत आदि स्थानों में ठहरे हुए शत्रुओं को वश में करके अपने प्रभाव को प्रकाशित करते हैं, वैसे सूर्य और चन्द्रमा पृथिवी के पदार्थों को प्रकाशित करते हैं। जैसे इन सूर्य्य और चन्द्रमा के निकट न होने से अन्धकार उत्पन्न होता है, वैसे राजपुरुषों के अभाव में अन्यायरूपी अन्धकार प्रवृत्त हो जाता है ॥ २० ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह ।

Anvay:

हे नासत्या युवां यथाऽजरयू सूर्याचन्द्रमसौ सुगेभी रजोभिर्लोकैः सह नक्तं पर्वतान् मेघान् वहतस्तथा विभिन्दुना रथेन सैन्यमूहथुः। विश्वतः सीं परिविष्टं जाहुषं राज्यं प्राप्य पर्वततुल्यान् शत्रून् व्ययातम् ॥ २० ॥

Word-Meaning: - (परिविष्टम्) सर्वतो व्याप्नुतम् (जाहुषम्) जहुषां गन्तव्यानामिदं गमनम्। अत्र ओहाङ्गतावित्यस्मादौणादिक उसिस्ततस्तस्येदमित्यण्। (विश्वतः) सर्वतः (सीम्) मर्य्यादाम् (सुगेभिः) सुखेन गमनाधिकरणैर्मार्गैः (नक्तम्) रात्रिम् (ऊहथुः) वहतम् (रजोभिः) लोकैः (विभिन्दुना) विविधभेदकेन (नासत्या) (रथेन) (वि) (पर्वतान्) मेघान् शैलान् वा (अजरयू) जरादिदोषरहितौ (अयातम्) प्राप्नुयातम् ॥ २० ॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा राजसभासदो धर्म्यमार्गै राज्यं प्राप्य दुर्गस्थान् पर्वतादिस्थांश्चापि शत्रून् वशीकृत्य स्वप्रभावं प्रकाशयन्ति तथा सूर्याचन्द्रमसौ पृथिवीस्थान् पदार्थान् प्रकाशयतः। यथैतयोरसन्निहितेऽन्धकारो जायते तथैतेषामभावेऽन्यायतमः प्रवर्त्तते ॥ २० ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे राजाचे सभासद धर्मानुकूल मार्गाने राज्य प्राप्त करून किल्ल्यात किंवा पर्वत इत्यादी स्थानी राहणाऱ्या शत्रूंना वश करून आपला प्रभाव दर्शवितात तसे सूर्य व चंद्र पृथ्वीवरील पदार्थांना प्रकाशित करतात. जसे सूर्य व चंद्र जवळ नसल्यास अंधकार उत्पन्न होतो तसे राजपुरुषाच्या अभावाने अन्यायरूपी अंधकार उत्पन्न होतो. ॥ २० ॥