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श॒तं मे॒षान्वृ॒क्ये॑ चक्षदा॒नमृ॒ज्राश्वं॒ तं पि॒तान्धं च॑कार। तस्मा॑ अ॒क्षी ना॑सत्या वि॒चक्ष॒ आध॑त्तं दस्रा भिषजावन॒र्वन् ॥

English Transliteration

śatam meṣān vṛkye cakṣadānam ṛjrāśvaṁ tam pitāndhaṁ cakāra | tasmā akṣī nāsatyā vicakṣa ādhattaṁ dasrā bhiṣajāv anarvan ||

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Pad Path

श॒तम्। मे॒षान्। वृ॒क्ये॑। च॒क्ष॒दा॒नम्। ऋ॒ज्रऽअ॑श्वम्। तम्। पि॒ता। अ॒न्धम्। च॒का॒र॒। तस्मै॑। अ॒क्षी इति॑। ना॒स॒त्या॒। वि॒ऽचक्षे॑। आ। अ॒ध॒त्त॒म्। द॒स्रा॒। भि॒ष॒जौ॒। अ॒न॒र्वन् ॥ १.११६.१६

Rigveda » Mandal:1» Sukta:116» Mantra:16 | Ashtak:1» Adhyay:8» Varga:11» Mantra:1 | Mandal:1» Anuvak:17» Mantra:16


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - जो (वृक्ये) वृकी अर्थात् चोर की स्त्री के लिये (शतम्) सैकड़ों (मेषान्) ईर्ष्या करनेवालों को देवे वा जो ऐसा उपदेश करे और जो चोरों में सूधे घोड़ोंवाला हो (तम्) उस (चक्षदानम्) स्पष्ट उपदेश करने वा (ऋज्राश्वम्) सूधे घोड़ेवाले को (पिता) प्रजाजनों की पालना करनेहारा राजा जैसे (अन्धम्) अन्धा दुःखी होवे वैसा दुःखी (चकार) करे। हे (नासत्या) सत्य के साथ वर्त्ताव रखने और (दस्रा) रोगों का विनाश करनेवाले धर्मराज सभापति (भिषजौ) वैद्यजनों के तुल्य वर्त्ताव रखनेवालो ! तुम दोनों जो अज्ञानी कुमार्ग से चलनेवाला व्यभिचारी और रोगी है (तस्मै) उस (अनर्वन्) अज्ञानी के लिये (विचक्षे) अनेकविध देखने को (अक्षी) व्यवहार और परमार्थ विद्यारूपी आँखों को (आ, अधत्तम्) अच्छे प्रकार पोढ़ी (=पुष्ट) करो ॥ १६ ॥
Connotation: - सभा के सहित राजा हिंसा करनेवाले, चोर, कपटी, छली मनुष्यों को काराघर में अन्धों के समान रखकर और अपने उपदेश अर्थात् आज्ञा रूप शिक्षा और व्यवहार की शिक्षा से धर्मात्मा कर, और विद्या में प्रीति रखनेवालों को उनकी प्रकृति के अनुकूल ओषधि देकर उनको आरोग्य करे ॥ १६ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह ।

Anvay:

यो वृक्ये शतं मेषान् दद्याद्य ईदृगुपदिशेद् यस्स्तेनेषु ऋज्राश्वः स्यात्तं चक्षदानमृज्राश्वं पिताऽन्धमिव दुःखारूढं चकार। हे नासत्या दस्रा भिषजाविव वर्त्तमानावश्विनौ धर्मराजसभाधीशौ युवां योऽविद्यावान् कुपथगामी जारो रोगी वर्त्तते तस्मा अनर्वन्नविदुषे विचक्षे अक्षी व्यवहारपरमार्थविद्यारूपे अक्षिणी आऽधत्तं समन्तात्पोषयतम् ॥ १६ ॥

Word-Meaning: - (शतम्) शतसंख्याकान् (मेषान्) स्पर्द्धकान् (वृक्ये) वृकस्य स्तेनस्य स्त्रियै स्तेन्यै (चक्षदानम्) व्यक्तोपदेशकम्। अत्र चक्षिङ् धातोरौणादिक आनक् प्रत्ययोऽदुगागमश्च बाहुलकात्। (ऋज्राश्वम्) सरलतुरङ्गम् (तम्) (पिता) प्रजापालको राजा (अन्धम्) चक्षुर्हीनम् (चकार) कुर्यात् (तस्मै) (अक्षी) चक्षुषी (नासत्या) सत्येन सह वर्त्तमानौ (विचक्षे) विविधदर्शनाय (आ) (अधत्तम्) पुष्येतम् (दस्रा) रोगोपक्षयितारौ (भिषजौ) सद्वैद्यौ (अनर्वन्) अनर्वणोऽविद्यमानज्ञानाय। सुपां सुलुगिति इति विभक्तिलुक् ॥ १६ ॥
Connotation: - ससभो राजा हिंसकान् चोरान् लम्पटान् जनान् कारागृहेऽन्धानिव कृत्वोपदेशेन व्यवहारशिक्षया च धार्मिकान् संपाद्य धर्मविद्याप्रियान् पथ्यौषधिदानेनारोग्यांश्च कुर्य्यात् ॥ १६ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - सभा व राजा यांनी हिंसक, चोर, कपटी, छळ करणाऱ्या माणसांना कारागृहात आंधळ्याप्रमाणे ठेवावे. आपल्या उपदेशाने अर्थात आज्ञारूपी शिक्षण व व्यवहाराच्या शिक्षणाने धर्मात्मा बनवून विद्याप्रेमी लोकांना त्यांच्या प्रकृतीनुसार औषध देऊन त्यांना निरोगी करावे. ॥ १६ ॥