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जि॒ह्म॒श्ये॒३॒॑चरि॑तवे म॒घोन्या॑भो॒गय॑ इ॒ष्टये॑ रा॒य उ॑ त्वम्। द॒भ्रं पश्य॑द्भ्य उर्वि॒या वि॒चक्ष॑ उ॒षा अ॑जीग॒र्भुव॑नानि॒ विश्वा॑ ॥

English Transliteration

jihmaśye caritave maghony ābhogaya iṣṭaye rāya u tvam | dabhram paśyadbhya urviyā vicakṣa uṣā ajīgar bhuvanāni viśvā ||

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Pad Path

जि॒ह्म॒ऽश्ये॑। चरि॑तवे। म॒घोनी॑। आ॒ऽभो॒गये॑। इ॒ष्टये॑। रा॒ये। ऊँ॒ इति॑। त्वम्। द॒भ्रम्। पश्य॑त्ऽभ्यः। उ॒र्वि॒या। वि॒ऽचक्षे॑। उ॒षाः। अ॒जी॒गः॒। भुव॑नानि। विश्वा॑ ॥ १.११३.५

Rigveda » Mandal:1» Sukta:113» Mantra:5 | Ashtak:1» Adhyay:8» Varga:1» Mantra:5 | Mandal:1» Anuvak:16» Mantra:5


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - हे विद्वन् ! (त्वम्) तू जो (उर्विया) अनेक रूपयुक्त (मघोनी) अधिक धन प्राप्त करानेहारी (उषाः) प्रातर्वेला (विश्वा) सब (भुवनानि) लोकों को (अजीगः) निगलती (जिह्मश्ये) वा जो टेढ़े सोने अर्थात् सोने में टेढ़ापन को प्राप्त हुए जन (के) लिये वा (चरितवे) विचरने को (विचक्षे) विविध प्रकटता के लिये (आभोगये) सब ओर से सुख के भोग जिसमें हों उस पुरुषार्थ से युक्त क्रिया के लिये (इष्टये) वा जिसमें मिलते हैं उस यज्ञ के लिये वा (राये) धनों के लिये वा (पश्यद्भ्यः) देखते हुए मनुष्यों के लिये (दभ्रम्) छोटे से (उ) भी वस्तु को प्रकाश करती है, उस उषा को जान ॥ ५ ॥
Connotation: - जो मनुष्य रात्री के चौथे प्रहर में जागकर शयन पर्य्यन्त व्यर्थ समय को नहीं जाने देते, वे ही सुखी होते हैं, अन्य नहीं ॥ ५ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह ।

Anvay:

हे विद्वँस्त्वं योर्विया मघोन्युषा विश्वा भुवनान्यजीगः जिह्मश्ये चरितवे विचक्ष आभोगय इष्टये राये धनानि पश्यद्भ्यो दभ्रसु ह्रस्वमपि वस्तु प्रकाशयति तां विजानीहि ॥ ५ ॥

Word-Meaning: - (जिह्मश्ये) जिह्मः शेते स जिह्मशीस्तस्मै शयने वक्रत्वं प्राप्ताय जनाय। जहातेः सन्वदाकारलोपश्च। उ० १। १४१। अनेनायं सिद्धः। जिह्मं जिहीतेरूर्ध्व उच्छ्रितो भवति। निरु० ८। १५। (चरितवे) चरितुं व्यवहर्त्तुम् (मघोनी) प्रशस्तानि मघानि धनानि प्राप्तानि यस्यां सा (आभोगये) समन्ताद्भुञ्जते सुखानि यस्यां तस्यै पुरुषार्थयुक्तायै। अत्र बहुलवचनादौणादिको घिः प्रत्ययः। (इष्टये) यजन्ति सङ्गच्छन्ते यस्मिन् यज्ञे तस्मै। अत्र बाहुलकादौणादिकस्तिः प्रत्ययः किच्च। (राये) राज्यश्रिये (उ) अपि (त्वम्) पुरुषार्थी (दभ्रम्) ह्रस्वं वस्तु। दभ्रमिति ह्रस्वनामसु पठितम्। नि० ३। २। (पश्यद्भ्यः) संप्रेक्षमाणेभ्यः (उर्विया) बहुरूपा (विचक्षे) विविधप्रकटत्वाय (उषा) दाहारम्भनिमित्ता (अजीगः०) इति पूर्ववत् ॥ ५ ॥
Connotation: - ये मनुष्या रजन्याश्चतुर्थे यामे जागरित्वा शयनपर्यन्तव्यर्थं समयं न गमयन्ति त एव सुखिनो भवन्ति नेतरे ॥ ५ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - जी माणसे रात्री चौथ्या प्रहरी जागे होऊन झोपेपर्यंत व्यर्थ काळ घालवित नाहीत तीच सुखी होतात. इतर नाही. ॥ ५ ॥