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ईळे॒ द्यावा॑पृथि॒वी पू॒र्वचि॑त्तये॒ऽग्निं घ॒र्मं सु॒रुचं॒ याम॑न्नि॒ष्टये॑। याभि॒र्भरे॑ का॒रमंशा॑य॒ जिन्व॑थ॒स्ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम् ॥

English Transliteration

īḻe dyāvāpṛthivī pūrvacittaye gniṁ gharmaṁ surucaṁ yāmann iṣṭaye | yābhir bhare kāram aṁśāya jinvathas tābhir ū ṣu ūtibhir aśvinā gatam ||

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Pad Path

ईळे॑। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। पू॒र्वऽचि॑त्तये। अ॒ग्निम्। घ॒र्मम्। सु॒ऽरुच॑म्। याम॑न्। इ॒ष्टये॑। याभिः॑। भरे॑। का॒रम्। अंशा॑य। जिन्व॑थः। ताभिः॑। ऊँ॒ इति॑। सु। ऊ॒तिऽभिः॑। अ॒श्वि॒ना॒। आ। ग॒त॒म् ॥ १.११२.१

Rigveda » Mandal:1» Sukta:112» Mantra:1 | Ashtak:1» Adhyay:7» Varga:33» Mantra:1 | Mandal:1» Anuvak:16» Mantra:1


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अब एकसौ बारहवें सूक्त का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र में सूर्य्य और भूमि के गुणों का कथन किया है ।

Word-Meaning: - हे (अश्विना) विद्याओं में व्याप्त होनेवाले अध्यापक और उपदेशक ! आप जैसे (यामन्) मार्ग में (पूर्वचित्तये) पूर्व विद्वानों में संचित किये हुए (इष्टये) अभीष्ट सुख के लिये (द्यावापृथिवी) सूर्य्य का प्रकाश और भूमि (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षाओं से युक्त (भरे) संग्राम में (घर्मम्) प्रतापयुक्त (सुरुचम्) अच्छे प्रकार प्रदीप्त और रुचिकारक (अग्निम्) विद्युत् रूप अग्नि को प्राप्त होते हैं वैसे (ताभिः) उन रक्षाओं से (अंशाय) भाग के लिये (कारम्) जिसमें क्रिया करते हैं उस विषय को (सु, जिन्वथः) उत्तमता से प्राप्त होते हैं (उ) तो कार्य्यसिद्धि करने के लिये (आ, गतम्) सदा आवें, इस हेतु से मैं (ईळे) आपकी स्तुति करता हूँ ॥ १ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे प्रकाशयुक्त सूर्य्यादि और अन्धकारयुक्त भूमि आदि लोक सब घर आदिकों के चिनने और आधार के लिये होते और बिजुली के साथ सम्बन्ध करके सबके धारण करनेवाले होते हैं, वैसे तुम भी प्रजा में वर्त्ता करो ॥ १ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

तत्रादौ द्यावाभूमिगुणा उपदिश्यन्ते।

Anvay:

हे अश्विना सर्वविद्याव्यापिनावध्यापकोपदेशकौ भवन्तौ यथा यामन् पूर्वचित्तये इष्टये द्यावापृथिवी याभिरूतिभिर्भरे घर्मं सुरुचमग्निं प्राप्नुतस्तथा ताभिरंशाय कारं सु जिन्वथः कार्य्यसिद्धय आगतमित्यहमीळे ॥ १ ॥

Word-Meaning: - (ईळे) (द्यावापृथिवी) प्रकाशभूमी (पूर्वचित्तये) पूर्वैः कृतचयनाय (अग्निम्) विद्युतम् (घर्मम्) (प्रतापस्वरूपम्) (सुरुचम्) सुष्ठु दीप्तं रुचिकारकम् (यामन्) यान्ति यस्मिंस्तस्मिन्मार्गे (इष्टये) इष्टसुखाय (याभिः) वक्ष्यमाणाभिः (भरे) संग्रामे (कारम्) कुर्वन्ति यस्मिंस्तम् (अंशाय) भागाय (जिन्वथः) प्राप्नुतः। जिन्वतीति गतिकर्मा०। निघं० २। १४। (ताभिः) (उ) वितर्के (सु) शोभने (ऊतिभिः) रक्षाभिः (अश्विना) विद्याव्यापनशीलौ (आ) (गतम्) आगच्छतम् ॥ १ ॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यथा प्रकाशाऽप्रकाशयुक्तौ सूर्य्यभूमिलोकौ सर्वेषां गृहादीनां चयनायाधाराय च भवतो विद्युता सहैतौ संबन्धं कृत्वा सर्वेषां धारकौ च वर्त्तेते यथा यूयमपि प्रजासु वर्त्तध्वम् ॥ १ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

या सूक्तात सूर्य, पृथ्वी इत्यादींचे गुण, सभा सेनेच्या अध्यक्षांचे कर्तव्य व त्यांनी केलेल्या परोपकार इत्यादी कर्मांचे वर्णन केलेले आहे. त्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी. ॥

Word-Meaning: - N/A
Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसा प्रकाशयुक्त सूर्यलोक व अंधकारयुक्त भूमी इत्यादी घरे बांधण्यासाठी व आधार देण्यासाठी असतात व विद्युतच्या साह्याने सर्वांना धारण करतात तसे तुम्ही प्रजेबरोबर वागा. ॥ १ ॥