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त॒तं मे॒ अप॒स्तदु॑ तायते॒ पुन॒: स्वादि॑ष्ठा धी॒तिरु॒चथा॑य शस्यते। अ॒यं स॑मु॒द्र इ॒ह वि॒श्वदे॑व्य॒: स्वाहा॑कृतस्य॒ समु॑ तृप्णुत ऋभवः ॥

English Transliteration

tatam me apas tad u tāyate punaḥ svādiṣṭhā dhītir ucathāya śasyate | ayaṁ samudra iha viśvadevyaḥ svāhākṛtasya sam u tṛpṇuta ṛbhavaḥ ||

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Pad Path

त॒तम्। मे॒। अपः॑। तत्। ऊँ॒ इति॑। ता॒य॒ते॒। पुन॒रिति॑। स्वादि॑ष्ठा। धी॒तिः। उ॒चथा॑य। श॒स्य॒ते॒। अ॒यम्। स॒मु॒द्रः। इ॒ह। वि॒श्वऽदे॑व्यः॒। स्वाहा॑ऽकृतस्य। सम्। ऊँ॒ इति॑। तृ॒प्णु॒त॒। ऋ॒भ॒वः॒ ॥ १.११०.१

Rigveda » Mandal:1» Sukta:110» Mantra:1 | Ashtak:1» Adhyay:7» Varga:30» Mantra:1 | Mandal:1» Anuvak:16» Mantra:1


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अब ११० एकसौ दशवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र से विद्वान् मनुष्य कैसे अपना वर्त्ताव रक्खें, यह उपदेश किया है ।

Word-Meaning: - हे (ऋभवः) हे बुद्धिमान् विद्वानो ! तुम लोग जैसे (इह) इस लोक में (अयम्) यह (विश्वदेव्यः) समस्त अच्छे गुणों के योग्य (समुद्रः) समुद्र है और जैसे तुम लोगों में (स्वाहाकृतस्य) सत्य वाणी से उत्पन्न हुए धर्म के (उचथाय) कहने के लिये (स्वादिष्ठा) अतीव मधुर गुणवाली (धीतिः) बुद्धि (शस्यते) प्रशंसनीय होती है (उ) वा जैसे (मे) मेरा (ततम्) बहुत फैला हुआ अर्थात् सबको विदित (अपः) काम (तायते) पालना करता है (तत्, उ, पुनः) वैसे फिर तो हम लोगों को (सम्, तृप्णुत) अच्छा तृप्त करो ॥ १ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। जैसे समस्त रत्नों से भरा हुआ समुद्र दिव्य गुणयुक्त है, वैसे ही धार्मिक पढ़ानेवालों को चाहिये कि मनुष्यों में सत्य काम और अच्छी बुद्धि का प्रचारकर दिव्य गुणों की प्रसिद्धि करें ॥ १ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अथ विद्वांसो मनुष्याः कथं वर्त्तेरन्नित्युपदिश्यते।

Anvay:

हे ऋभवो मेधाविनो विद्वांसो यथेहायं विश्वदेव्यः समुद्रो यथा च युष्माभिः स्वाहाकृतस्योचथाय स्वादिष्ठा धीतिः शस्यते यथो मे ततमपस्तायते तदु पुनरस्मान् येयं संतृप्णुत ॥ १ ॥

Word-Meaning: - (ततम्) विस्तृतम् (मे) मम (अपः) कर्म (तत्) तथा (उ) वितर्के (तायते) पालयति। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (पुनः) (स्वादिष्ठा) अतिशयेन स्वाद्वी (धीतिः) धीः (उचथाय) प्रवचनायाध्यापनाय (शस्यते) (अयम्) (समुद्रः) सागरः (इह) अस्मिँल्लोके (विश्वदेव्यः) विश्वान्समग्रान् देवान् दिव्यगुणानर्हति (स्वाहाकृतस्य) सत्यवाङ्निष्पन्नस्य धर्मस्य (सम्) (उ) (तृप्णुत) सुखयत (ऋभवः) मेधाविनः। ऋभुरिति मेधाविना०। निघं० ३। १५। अत्राह निरुक्तकारः−ऋभव उरुभान्तीति वर्त्तेन भान्तीति वर्त्तेन भवन्तीति वा। निरु० ११। १५। ॥ १ ॥
Connotation: - अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। यथा समस्तरत्नैर्युक्तः सागरो दिव्यगुणो वर्त्तते तथैव धार्मिकैरध्यापकैर्मनुष्येषु सत्यकर्मप्रज्ञे प्रचार्य्य दिव्यगुणाः प्रसिद्धाः कार्य्याः ॥ १ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

या सूक्तात बुद्धिमानाचे कार्य व गुण यांचे वर्णन केलेले आहे. त्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती आहे, हे जाणले पाहिजे ॥

Word-Meaning: - N/A
Connotation: - या मंत्रात लुप्तोपमालंकार आहे. जसा संपूर्ण रत्नांनी भरलेला सागर दिव्य गुणांनी युक्त असतो तसेच धार्मिक शिकवण देणाऱ्यांनी माणसांमध्ये सत्य कर्म व उत्तम बुद्धीचा प्रचार करून दिव्य गुणांना प्रकट करावे. ॥ १ ॥