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यदि॑न्द्राग्नी अव॒मस्यां॑ पृथि॒व्यां म॑ध्य॒मस्यां॑ पर॒मस्या॑मु॒त स्थः। अत॒: परि॑ वृषणा॒वा हि या॒तमथा॒ सोम॑स्य पिबतं सु॒तस्य॑ ॥

English Transliteration

yad indrāgnī avamasyām pṛthivyām madhyamasyām paramasyām uta sthaḥ | ataḥ pari vṛṣaṇāv ā hi yātam athā somasya pibataṁ sutasya ||

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Pad Path

यत्। इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑। अ॒व॒मस्या॑म्। पृ॒थि॒व्याम्। म॒ध्य॒मस्या॑म्। प॒र॒मस्या॑म्। उ॒त। स्थः। अतः॑। परि॑। वृ॒ष॒णौ॒। आ। हि। या॒तम्। अथ॑। सोम॑स्य। पि॒ब॒त॒म्। सु॒तस्य॑ ॥ १.१०८.९

Rigveda » Mandal:1» Sukta:108» Mantra:9 | Ashtak:1» Adhyay:7» Varga:27» Mantra:4 | Mandal:1» Anuvak:16» Mantra:9


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वे और भौतिक इन्द्र और अग्नि कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - हे (इन्द्राग्नी) न्यायाधीश और सेनाधीश ! (यत्) जो तुम दोनों (अवमस्याम्) निकृष्ट (मध्यमस्याम्) मध्यम् (उत) और (परमस्याम्) उत्तम गुणवाली (पृथिव्याम्) अपनी राज्यभूमि में अधिकार पाए हुए (स्थः) हो वे सब कभी सबकी रक्षा करने योग्य हो (अतः) इस कारण इस उक्त राज्य में (परि, वृषणौ) सब प्रकार सुखरूपी वर्षा करनेहारे होकर (आ, यातम्) आओ (हि) एक निश्चय के साथ (अथ) इसके उपरान्त उस राज्यभूमि में (सुतस्य) उत्पन्न हुए (सोमस्य) संसारी पदार्थों के रस को (पिबतम्) पिओ, यह एक अर्थ हुआ ॥ १ ॥ (यत्) जो ये (इन्द्राग्नी) पवन और बिजुली (अवमस्याम्) निकृष्ट (मध्यमस्याम्) मध्यम (उत) वा (परमस्याम्) उत्तम गुणवाली (पृथिव्याम्) पृथिवी में (स्थः) हैं (अतः) इससे यहाँ (परि, वृषणौ) सब प्रकार से सुखरूपी वर्षा करनेवाले होकर (आ, यातम्) आते और (अथ) इसके उपरान्त (हि) एक निश्चय के साथ जो (सुतस्य) निकाले हुए (सोमस्य) पदार्थों के रस को (पिबतम्) पीते हैं, उनको काम सिद्धि के लिये कलाओं में संयुक्त करके महान् लाभ सिद्ध करना चाहिये ॥ ९ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। उत्तम, मध्यम, और निकृष्ट गुण, कर्म और स्वभाव के भेद से जो-जो राज्य है, वहाँ-वहाँ वैसे ही उत्तम, मध्यम, निकृष्ट गुण, कर्म और स्वभाव के मनुष्यों को स्थापनकर और चक्रवर्त्ती राज्य करके सबको आनन्द भोगना-भोगवाना चाहिये। ऐसे ही इस सृष्टि में ठहरे और सब लोकों में प्राप्त होते हुए पवन और बिजुली को जान और उनका अच्छे प्रकार प्रयोग कर तथा कार्य्यों की सिद्धि करके दारिद्र्य दोष सबको नाश करना चाहिये ॥ ९ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनरेतौ भौतिकौ च कीदृशावित्युपदिश्यते ।

Anvay:

हे इन्द्राग्नी यद् युवामवमस्यां मध्यमस्यामुतापि परमस्यां पृथिव्यां स्वराज्यभूमावधिकृतौ स्थस्तौ सर्वदा सर्वे रक्षणीयौ स्तः। अतोऽत्र परिवृषणौ भूत्वाऽऽयातं हि खल्वथ तत्रस्थं सुतस्य सोमस्य रसं पिबतमित्येकः ॥ १ ॥ यद् याविमाविन्द्राग्नी अवमस्यां मध्यमस्यामुतापि परमस्यां पृथिव्यां स्थोऽतोऽत्र परिवृषणौ भूत्वाऽऽयातमागच्छतो हि खल्वथ यौ सुतस्य सोमस्य रसं पिबतं पिबतस्तौ कार्यसिद्धये प्रयुज्य मनुष्यैर्महालाभः संपादनीयः ॥ ९ ॥

Word-Meaning: - (यत्) यौ (इन्द्राग्नी) न्यायसेनाध्यक्षौ वायुविद्युतौ वा (अवमस्याम्) अनुत्कृष्टगुणायाम् (पृथिव्याम्) स्वराज्यभूमौ (मध्यमस्याम्) मध्यमगुणायाम् (परमस्याम्) उत्कृष्टगुणायाम् (उत) अपि (स्थः) भवथो भवतो वा (अतः०) इति पूर्ववत् ॥ ९ ॥
Connotation: - अत्र श्लेषालङ्कारः। उत्तममध्यमनिकृष्टगुणकर्मस्वभावभेदेन यद्यद्राज्यमस्ति तत्र तत्रोत्तममध्यमनिकृष्टगुणकर्मस्वभावान्मनुष्यान् संस्थाप्य चक्रवर्त्तिराज्यं कृत्वाऽऽनन्दः सर्वैर्भोक्तव्यः। एवमेतत्सृष्टिस्थौ सर्वलोकेष्ववस्थितौ पवनविद्युतौ विज्ञाय संप्रयुज्य कार्यसिद्धिं संपाद्य दारिद्र्यादिदुःखं सर्वैर्विनाशनीयम् ॥ ९ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. उत्तम, मध्यम व निकृष्ट गुण, कर्म, स्वभावाच्या फरकाने जे जे राज्य आहे . तेथे तेथे उत्तम, मध्यम, निकृष्ट गुण, कर्म, स्वभावाच्या माणसांना नेमून चक्रवर्ती राज्य करून सर्वांनी आनंद भोगावा व भोगवावा. तसेच या सृष्टीत सर्व गोलात वायू व विद्युत स्थित आहेत, हे जाणावे व त्यांचा चांगल्या प्रकारे प्रयोग करून कार्यसिद्धी करावी. दारिद्र्य दोषाचा सर्वांनी नाश केला पाहिजे. ॥ ९ ॥