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त्रि॒वि॒ष्टि॒धातु॑ प्रति॒मान॒मोज॑सस्ति॒स्रो भूमी॑र्नृपते॒ त्रीणि॑ रोच॒ना। अती॒दं विश्वं॒ भुव॑नं ववक्षिथाश॒त्रुरि॑न्द्र ज॒नुषा॑ स॒नाद॑सि ॥

English Transliteration

triviṣṭidhātu pratimānam ojasas tisro bhūmīr nṛpate trīṇi rocanā | atīdaṁ viśvam bhuvanaṁ vavakṣithāśatrur indra januṣā sanād asi ||

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Pad Path

त्रि॒वि॒ष्टि॒ऽधातु॑। प्र॒ति॒ऽमानम्। ओज॑सः। ति॒स्रः। भूमीः॑। नृ॒ऽप॒ते॒। त्रीणि॑। रो॒च॒ना। अति॑। इ॒दम्। विश्व॑म्। भुव॑नम्। व॒व॒क्षि॒थ॒। अ॒श॒त्रुः। इ॒न्द्र॒। ज॒नुषा॑। स॒नात्। अ॒सि॒ ॥ १.१०२.८

Rigveda » Mandal:1» Sukta:102» Mantra:8 | Ashtak:1» Adhyay:7» Varga:15» Mantra:3 | Mandal:1» Anuvak:15» Mantra:8


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अब ईश्वर और सभापति कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - हे (नृपते) मनुष्यों के स्वामी ईश्वर वा राजन् ! (इन्द्र) बहुत ऐश्वर्य से युक्त (अशत्रुः) शत्रुरहित आप (त्रिविष्टिधातु) जिसमें तीन प्रकार की पृथिवी, जल, तेज, पवन, आकाश की व्याप्ति अर्थात् परिपूर्णता है, उस संसार की (प्रतिमानम्) परिमाण वा उपमान जैसे हो वैसे (सनात्) सनातन कारण वा (ओजसः) बल वा (जनुषा) उत्पन्न किये हुए काम से (तिस्रः) तीन प्रकार (भूमीः) अर्थात् नीचली, ऊपरली, और बीचली उत्तम, अधम और मध्यम भूमि तथा (त्रीणि) तीन प्रकार के (रोचना) प्रकाशयुक्त विद्या, शब्द और सूर्य्य और न्याय करने, बल और राज्यपालन आदि काम के तुम दोनों यथायोग्य निर्वाह करनेवाले (असि) हो और उक्त पञ्चभूतमय (इदम्) इस (विश्वम्) समस्त (भुवनम्) जिसमें कि प्राणी होते हैं उस जगत् के (अति, ववक्षिथ) अतीव निर्वाह करने की इच्छा करते हो, इससे ईश्वर उपासना करने योग्य और विद्वान् आप सत्कार करने योग्य हो ॥ ८ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जिसकी उपमा नहीं है, उस ईश्वर ने कारण से सब कार्य्यरूप जगत् को रच और उसकी रक्षाकर उसका संहार किया है, वही इष्टदेव मानने योग्य है तथा जो अतुल सामर्थ्ययुक्त सभापति प्रसिद्ध न्याय आदि गुणों से समस्त राज्य को सन्तोषित करता है, सो भी सदा सत्कार करने योग्य है ॥ ८ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अथेश्वरः सभापतिश्च कीदृश इत्युपदिश्यते ।

Anvay:

हे नृपत इन्द्र वह्वैश्वर्यवन् अशत्रुस्त्वं त्रिविष्टिधातु प्रतिमानं सनादोजसो जनुषा तिस्रो भूमीस्त्रीणि रोचना निर्वहन्नसि त्रिविष्टिधातु प्रतिमानमिदं विश्वं भुवनमतिववक्षिय तस्मात्सत्कर्त्तव्योऽसि ॥ ८ ॥

Word-Meaning: - (त्रिविष्टिधातु) त्रिधोत्तममध्यमनिकृष्टा विष्टयो व्याप्तयो धातूनां पृथिव्यादीनां यस्मिँस्तत् (प्रतिमानम्) प्रतिमीयते यत् (ओजसः) बलात् (तिस्रः) त्रिविधाः (भूमीः) अधऊर्ध्वमध्यस्था उत्तमाधममध्यमाः क्षितीः (नृपते) नृणां स्वामिन्नीश्वर नृप वा (त्रीणि) त्रिविधानि (रोचना) रोचनानि विद्याशब्दसूर्य्यादीनि न्यायबलराज्यपालनादीनि च (अति) (इदम्) प्रत्यक्षम् (विश्वम्) समग्रम् (भुवनम्) भवन्ति भूतानि यस्मिञ्जगति तत् (ववक्षिथ) वोढुमिच्छसि। अत्र लडर्थे लिट्। सन्नन्तस्य वहधातोरयं प्रयोगः। बहुलं छन्दसीत्यनेनाभ्यासस्येत्वाभावः। (अशत्रुः) न सन्ति शत्रवो यस्य सः (इन्द्र) वह्वैश्वर्य्ययुक्त (जनुषा) प्रादुर्भूतेन कर्मणा (सनात्) सनातनात् कारणात् (असि) भवसि ॥ ८ ॥
Connotation: - अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैर्येनाप्रतिमेश्वरेण कारणात्सर्वं कार्यं जगन्निर्माय संरक्ष्य संह्रियते स एवेष्टो माननीयस्तथा योऽतुलसामर्थ्यो सभाधिपतिः प्रसिद्धैर्न्यायादिगुणैः सर्वं राज्यं संतोषयति स च सत्कर्त्तव्यः ॥ ८ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्याला उपमा नाही तो ईश्वर कारणाद्वारे सर्व कार्यजगत निर्माण करून त्याचे रक्षण करून त्याचा संहार करतो. माणसांनी त्यालाच इष्टदेव मानणे योग्य आहे व जो अतुल सामर्थ्ययुक्त सभापती प्रसिद्ध न्याय इत्यादी गुणांनी संपूर्ण राज्याला संतुष्ट करतो, तोही सदैव सत्कार करण्यायोग्य असतो. ॥ ८ ॥