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उत्ते॑ श॒तान्म॑घव॒न्नुच्च॒ भूय॑स॒ उत्स॒हस्रा॑द्रिरिचे कृ॒ष्टिषु॒ श्रव॑:। अ॒मा॒त्रं त्वा॑ धि॒षणा॑ तित्विषे म॒ह्यधा॑ वृ॒त्राणि॑ जिघ्नसे पुरंदर ॥

English Transliteration

ut te śatān maghavann uc ca bhūyasa ut sahasrād ririce kṛṣṭiṣu śravaḥ | amātraṁ tvā dhiṣaṇā titviṣe mahy adhā vṛtrāṇi jighnase puraṁdara ||

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Pad Path

उत्। ते॒। श॒तात्। म॒घ॒ऽव॒न्। उत्। च॒ भूय॑सः। उत्। स॒हस्रा॑त्। रि॒रि॒चे॒। कृ॒ष्टिषु॑। श्रवः॑। अ॒मा॒त्रम्। त्वा॒। धि॒षणा॑। ति॒त्वि॒षे॒। म॒ही। अध॑। वृ॒त्राणि॑। जि॒घ्न॒से॒। पु॒र॒म्ऽद॒र॒ ॥ १.१०२.७

Rigveda » Mandal:1» Sukta:102» Mantra:7 | Ashtak:1» Adhyay:7» Varga:15» Mantra:2 | Mandal:1» Anuvak:15» Mantra:7


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वह कैसा और क्या करता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - हे (मघवन्) असंख्यात ऐश्वर्य्य से युक्त सेनापति ! (ते) आपका (कृष्टिषु) मनुष्यों में (श्रवः) कीर्त्तन, श्रवण वा धन (शतात्) सैकड़ों से (उत्) ऊपर (रिरिचे) निकल गया (सहस्रात्) हजारों से (उत्) ऊपर (च) और (भूयसः) अधिक से भी (उत्) ऊपर अर्थात् अधिक निकल गया। (अध) इसके अनन्तर (अमात्रम्) परिमाणरहित (त्वा) आपकी (मही) महागुणयुक्त (धिषणा) विद्या और अच्छी शिक्षा को पाये हुई वाणी वा बुद्धि (तित्विषे) प्रकाशित करती है। हे (पुरन्दर) शत्रुओं के पुरों के विदारनेवाले ! (वृत्राणि) जैसे मेघ के अङ्ग अर्थात् बद्दलों को सूर्य्य हनन करता है, वैसे आप शत्रुओं को (जिघ्नसे) मारते हो ॥ ७ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जैसे सूर्य्य अन्धकार और मेघ आदि का हनन करके अपरिमित अर्थात् जिसका परिमाण न हो सके, उस अपने तेज को प्रकाशित करके सब तेजवाले पदार्थों में बढ़के वर्त्तमान है, वैसे विद्वान् को सभा का अधीश मानके शत्रुओं को जीतें ॥ ७ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः स कीदृशः किं करोतीत्युपदिश्यते ।

Anvay:

हे मघवन्निन्द्र ते कृष्टिषु श्रवः शतादुद्रिरिचे सहस्रादुद्रिरिचे भूयसश्चोद्रिरिचेऽधाऽमात्रं त्वा मही धिषणा तित्विषे। हे पुरन्दर वृत्राणि सूर्य्यइव त्वं शत्रून् जिघ्नसे ॥ ७ ॥

Word-Meaning: - (उत्) उत्कृष्टे (ते) तव (शतात्) असंख्यात् (मघवन्) असंख्यातैश्वर्य्य (उत्) (च) (भूयसः) अधिकात् (उत्) (सहस्रात्) असंख्येयात् (रिरिचे) अतिरिच्यते (कृष्टिषु) मनुष्येषु (श्रवः) कीर्तनं श्रवणं धनं वा (अमात्रम्) अपरिमितम् (त्वा) त्वाम् (धिषणा) विद्यासुशिक्षिता वाक् प्रज्ञा वा (तित्विषे) त्वेषति प्रदीप्यते (मही) महागुणविशिष्टा (अध) आनन्तर्ये। निपातस्य चेति दीर्घः। (वृत्राणि) यथा मेघावयवान्सूर्य्यस्तथा शत्रून् (जिघ्नसे) हन्याः। अत्र हन धातोर्लेटि शपः स्थाने श्लुः। व्यत्ययेनात्मनेपदं च। (पुरन्दर) यः शत्रूणां पुरो दृणाति तत्सम्बुद्धौ ॥ ७ ॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा सूर्योऽन्धकारमेघादिकं हत्वाऽपरिमितं स्वकीयं तेजः प्रकाश्य सर्वेषु तेजस्विष्वधिको वर्त्तते तथाभूतं विद्वांसं सभापतिं मत्वा शत्रवः पराजेयाः ॥ ७ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी जसा सूर्य अंधकार व मेघ इत्यादींचे हनन करून अपरिमित अर्थात ज्याचे परिमाण असू शकत नाही त्या तेजाला प्रकाशित करून सर्व तेजस्वी पदार्थांत वर्धित होत असतो, तसे विद्वानाला सभेचा अधीश मानून शत्रूंना जिंकावे. ॥ ७ ॥