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इ॒मां ते॒ धियं॒ प्र भ॑रे म॒हो म॒हीम॒स्य स्तो॒त्रे धि॒षणा॒ यत्त॑ आन॒जे। तमु॑त्स॒वे च॑ प्रस॒वे च॑ सास॒हिमिन्द्रं॑ दे॒वास॒: शव॑सामद॒न्ननु॑ ॥

English Transliteration

imāṁ te dhiyam pra bhare maho mahīm asya stotre dhiṣaṇā yat ta ānaje | tam utsave ca prasave ca sāsahim indraṁ devāsaḥ śavasāmadann anu ||

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Pad Path

इ॒माम्। ते॒। धिय॑म्। प्र। भ॒रे॒। म॒हः। म॒हीम्। अ॒स्य। स्तो॒त्रे। धि॒षणा॑। यत्। ते॒। आ॒न॒जे। तम्। उ॒त्ऽस॒वे। च॒। प्र॒ऽस॒वे। च॒। स॒स॒हिम्। इन्द्र॑म्। दे॒वासः॑। शव॑सा। अ॒म॒द॒न्। अनु॑ ॥ १.१०२.१

Rigveda » Mandal:1» Sukta:102» Mantra:1 | Ashtak:1» Adhyay:7» Varga:14» Mantra:1 | Mandal:1» Anuvak:15» Mantra:1


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अब शाला आदि के अध्यक्ष को क्या-क्या स्वीकार कर कैसा होना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - हे सर्व विद्या देनेवाले शाला आदि के अधिपति ! (यत्) जो (ते) (अस्य) इन आपकी (धिषणा) विद्या और उत्तम शिक्षा की हुई वाणी (आनजे) सब लोगों ने चाही प्रकट की और समझी है, जिन (ते) आपके (इमाम्) इस (महः) बड़ी (महीम्) सत्कार करने योग्य (धियम्) बुद्धि को (स्तोत्रे) प्रशंसनीय व्यवहार में (प्रभरे) अतीव धरे अर्थात् स्वीकार करे वा (उत्सवे) उत्सव (च) और साधारण काम में वा (प्रसवे) पुत्र आदि के उत्पन्न होने और (च) गमी होने में जिन (सासहिम्) अति क्षमापन करने (इन्द्रम्) विद्या और ऐश्वर्य्य की प्राप्ति करानेवाले आपको (देवासः) विद्वान् जन (शवसा) बल से (अनु, अमदन्) आनन्द दिलाते वा आनन्दित होते हैं (तम्) उन आपको मैं भी अनुमोदित करूँ ॥ १ ॥
Connotation: - सब मनुष्यों को चाहिये कि सब धार्मिक विद्वानों की विद्या, बुद्धियों और कामों को धारण और उनकी स्तुति कर उत्तम-उत्तम व्यवहारों का सेवन करें, जिनसे विद्या और सुख मिलते हैं, वे विद्वान् जन सबको सुख और दुःख के व्यवहारों में सत्कारयुक्त करके ही सदा आनन्दित करावें ॥ १ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अथ शालाद्यध्यक्षेण किं किं स्वीकृत्य कथं भवितव्यमित्युपदिश्यते ।

Anvay:

हे सर्वविद्याप्रद शालाद्यधिपतो यद्या ते तवास्य धिषणा सर्वैरानजे तस्य ते तव यामिमां महोमहीं धियमहं स्तोत्रे प्रभरे। उत्सवेऽनुत्सवे च प्रसवे मरणे च यं त्वां सासहिमिन्द्रं देवासः शवसाऽन्वमदन् तं त्वामहमप्यनुमदेयम् ॥ १ ॥

Word-Meaning: - (इमाम्) प्रत्यक्षाम् (ते) तव विद्याशालाधिपतेः (धियम्) प्रज्ञां कर्म वा (प्र) (भरे) धरे (महः) महतीम् (महीम्) पूज्यतमाम् (अस्य) (स्तोत्रे) स्तोतव्ये व्यवहारे (धिषणा) विद्यासुशिक्षिता वाक् (यत्) या यस्य वा (ते) तव (आनजे) सर्वैः काम्यते प्रकट्यते विज्ञायते। अत्राञ्जूधातोः कर्मणि लिट्। (तम्) (उत्सवे) हर्षनिमित्ते व्यवहारे (च) दुःखनिमित्ते वा (प्रसवे) उत्पत्तौ (च) मरणे वा (सासहिम्) अतिषोढारम् (इन्द्रम्) विद्यैश्वर्यप्रापकम् (देवासः) विद्वांसः (शवसा) बलेन (अमदन्) हृष्येयुर्हर्षयेयुर्वा (अनु) ॥ १ ॥
Connotation: - सर्वैर्मनुष्यैः सर्वेषां धार्मिकाणां विदुषां विद्यां प्रज्ञाः कर्माणि च धृत्वा स्तुत्या च व्यवहाराः सेवनीयाः। येभ्यो विद्यासुखे प्राप्येते ते सर्वान् सुखदुःखव्यवहारयोर्मध्ये सत्कृत्यैव सर्वदानन्दयेयुरिति ॥ १ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

या सूक्तात शाला इत्यादीचा अधिपती ईश्वर, अध्यापक व सेनापतीच्या गुणांच्या वर्णनाने या सूक्ताच्या अर्थाचे पूर्वसूक्तार्थाबरोबर साम्य आहे, हे जाणले पाहिजे. ॥

Word-Meaning: - N/A
Connotation: - सर्व माणसांनी सर्व धार्मिक विद्वानांची विद्या, बुद्धी व कार्ये धारण करून त्यांची स्तुती करून उत्तम उत्तम व्यवहारांचे ग्रहण करावे. ज्यांच्याकडून विद्या व सुख मिळते त्या विद्वान लोकांनी सर्वांना सुख व दुःखाच्या व्यवहारात सत्कार्य करून सदैव आनंदित करावे. ॥ १ ॥