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गाय॑न्ति त्वा गाय॒त्रिणोऽर्च॑न्त्य॒र्कम॒र्किणः॑। ब्र॒ह्माण॑स्त्वा शतक्रत॒ उद्वं॒शमि॑व येमिरे॥

English Transliteration

gāyanti tvā gāyatriṇo rcanty arkam arkiṇaḥ | brahmāṇas tvā śatakrata ud vaṁśam iva yemire ||

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Pad Path

गाय॑न्ति। त्वा॒। गा॒य॒त्रिणः॑। अर्च॑न्ति। अ॒र्कम्। अ॒र्किणः॑। ब्र॒ह्माणः॑। त्वा॒। श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो। उत्। वं॒शम्ऽइ॑व। ये॒मि॒रे॒॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:10» Mantra:1 | Ashtak:1» Adhyay:1» Varga:19» Mantra:1 | Mandal:1» Anuvak:3» Mantra:1


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अब दशम सूक्त का आरम्भ किया जाता है। इस सूक्त के प्रथम मन्त्र में इस बात का प्रकाश किया है कि कौन-कौन पुरुष किस-किस प्रकार से इन्द्रसंज्ञक परमेश्वर का पूजन करते हैं-

Word-Meaning: - हे (शतक्रतो) असंख्यात कर्म और उत्तम ज्ञानयुक्त परमेश्वर ! (ब्रह्माणः) जैसे वेदों को पढ़कर उत्तम-उत्तम क्रिया करनेवाले मनुष्य श्रेष्ठ उपदेश, गुण और अच्छी-अच्छी शिक्षाओं से (वंशम्) अपने वंश को (उद्येमिरे) प्रशस्त गुणयुक्त करके उद्यमवान् करते हैं, वैसे ही (गायत्रिणः) जो गायत्र अर्थात् प्रशंसा करने योग्य छन्दराग आदि पढ़े हुए धार्मिक और ईश्वर की उपासना करनेवाले हैं, वे पुरुष (त्वा) आपकी (गायन्ति) सामवेदादि के गानों से प्रशंसा करते हैं, तथा (अर्किणः) अर्क अर्थात् जो कि वेद के मन्त्र पढ़ने के नित्य अभ्यासी हैं, वे (अर्कम्) सब मनुष्यों को पूजने योग्य (त्वा) आपका (अर्चन्ति) नित्य पूजन करते हैं॥१॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सब मनुष्यों को परमेश्वर ही की पूजा करनी चाहिये अर्थात् उसकी आज्ञा के अनुकूल वेदविद्या को पढ़कर अच्छे-अच्छे गुणों के साथ अपने और अन्यों के वंश को भी पुरुषार्थी करते हैं, वैसे ही अपने आप को भी होना चाहिये। और जो परमेश्वर के सिवाय दूसरे का पूजन करनेवाला पुरुष है, वह कभी उत्तम फल को प्राप्त होने योग्य नहीं हो सकता, क्योंकि न तो ईश्वर की ऐसी आज्ञा ही है, और न ईश्वर के समान कोई दूसरा पदार्थ है कि जिसका उसके स्थान में पूजन किया जावे। इससे सब मनुष्यों को उचित है कि परमेश्वर ही का गान और पूजन करें॥१॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

तत्र के कथं तमिन्द्रं पूजयन्तीत्युपदिश्यते।

Anvay:

हे शतक्रतो ! ब्रह्माणः स्वकीयं वंशमुद्येमिरे इव गायत्रिणस्त्वां गायन्ति, अर्किणोऽर्कं त्वामर्चन्ति॥१॥

Word-Meaning: - (गायन्ति) सामवेदादिगानेन प्रशंसन्ति (त्वा) त्वां गेयं जगदीश्वरमिन्द्रम् (गायत्रिणः) गायत्राणि प्रशस्तानि छन्दांस्यधीतानि विद्यन्ते येषां ते धार्मिका ईश्वरोपासकाः। अत्र प्रशंसायामिनिः। (अर्चन्ति) नित्यं पूजयन्ति (अर्कम्) अर्च्यते पूज्यते सर्वैर्जनैर्यस्तम् (अर्किणः) अर्का मन्त्रा ज्ञानसाधना येषां ते (ब्रह्माणः) वेदान् विदित्वा क्रियावन्तः (त्वा) जगत्स्रष्टारम् (शतक्रतो) शतं बहूनि कर्माणि प्रज्ञानानि वा यस्य तत्सम्बुद्धौ (उत्) उत्कृष्टार्थे। उदित्येतयोः प्रातिलोम्यं प्राह। (निरु०१.३) (वंशमिव) यथोत्कृष्टैर्गुणैः शिक्षणैश्च स्वकीयं वंशमुद्यमवन्तं कुर्वन्ति तथा (येमिरे) उद्युञ्जन्ति॥१॥निरुक्तकार इमं मन्त्रमेवं व्याख्यातवान्-गायन्ति त्वा गायत्रिणः प्रार्चन्ति तेऽर्कमर्किणो ब्राह्मणास्त्वा शतक्रत उद्येमिरे वंशमिव। (निरु०५.५) अन्यच्च। अर्को देवो भवति यदेनमर्चन्त्यर्को मन्त्रो भवति यदनेनार्चत्यर्कमन्नं भवत्यर्चति भूतान्यर्को वृक्षो संवृतः कटुकिम्ना। (निरु०५.४)॥१॥
Connotation: - अत्रोपमालङ्कारः। यथा सर्वैर्मनुष्यैः परमेश्वरस्यैव पूजा कार्य्या, अर्थात्तदाज्ञायां सदा वर्त्तितव्यम्, वेदविद्यामप्यधीत्य सम्यग्विदित्वोपदेशेनोत्कृष्टैर्गुणैः सह मनुष्यवंश उद्यमवान् क्रियते, तथैव स्वैरपि भवितव्यम्। नेदं फलं परमेश्वरं विहायान्यपूजकः प्राप्तुमर्हति। कुतः, ईश्वरस्याज्ञाभावेन तत्सदृशस्यान्यवस्तुनो ह्यविद्यमानत्वात्, तस्मात् तस्यैव गानमर्चनं च कर्त्तव्यमिति॥१॥
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MATA SAVITA JOSHI

जे लोक क्रमाने विद्या इत्यादी गुणांचे ग्रहण करून ईश्वराची प्रार्थना करून आपल्या उत्तम पुरुषार्थाच्या आश्रयाने परमेश्वराची प्रशंसा करतात व धन्यवाद देतात तेच अविद्या इत्यादी दुष्ट गुणांच्या निवृत्तीने शत्रूंना जिंकून दीर्घायुषी बनतात व विद्वान होऊन सर्व माणसांना सुखी करून सदैव आनंदात राहतात. या अर्थाने या दहाव्या सूक्ताची संगती नवव्या सूक्ताबरोबर जाणली पाहिजे. ॥ १२ ॥

Word-Meaning: - N/A
Connotation: - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे सर्व माणसांनी परमेश्वराची पूजा केली पाहिजे अर्थात त्याच्या आज्ञेच्या अनुकूल वेदविद्या शिकून उत्कृष्ट गुणांनी मानववंशाला पुरुषार्थी केले पाहिजे. तसे स्वतःही झाले पाहिजे व जो परमेश्वराशिवाय इतराची पूजा करतो त्याला कधीही उत्तम फळ प्राप्त होऊ शकत नाही. कारण अशी ईश्वराची आज्ञा नाही किंवा ईश्वरासारखा दुसरा कोणीही नाही की ज्याची पूजा केली जावी. यामुळे सर्व माणसांनी परमेश्वराचे भजन व पूजन करावे. ॥ १ ॥