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अङ्गेअ॑ङ्गे॒ लोम्नि॑लोम्नि॒ यस्ते॒ पर्व॑णिपर्वणि। यक्षं॑ त्वच॒स्यं ते व॒यं क॒श्यप॑स्य वीब॒र्हेण॒ विष्व॑ञ्चं॒ वि वृ॑हामसि ॥

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अङ्गेऽअङ्गे । लोम्निऽलोम्नि । ते । पर्वणिऽपर्वणि ॥ यक्ष्मम् । त्वचस्यम् । ते । वयम् । कश्यपस्य । विऽबर्हेण । विष्वञ्चम् । वि । वृहामसि ॥९६.२३॥

Atharvaveda » Kand:20» Sukta:96» Paryayah:0» Mantra:23


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PANDIT KSHEMKARANDAS TRIVEDI

शारीरिक विषय में शरीररक्षा का उपदेश।

Word-Meaning: - (यः) जो [क्षयी रोग] (ते) तेरे (अङ्गे अङ्गे) अङ्ग-अङ्ग में, (लोम्निलोम्नि) रोम-रोम में और (पर्वणिपर्वणि) गाँठ-गाँठ में है। (वयम्) हम (ते) तेरे (त्वचस्यम्) त्वचा के और (विष्वञ्चम्) सब अवयवों में व्यापक (यक्ष्मम्) क्षयी रोग को (कश्यपस्य) ज्ञानदृष्टिवाले विद्वान् के (विबर्हेण) विविध उद्यम से (वि वृहामसि) जड़ से उखाड़ते हैं ॥२३॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपसंहार वा समाप्ति है, अर्थात् प्रसिद्ध अवयवों का वर्णन करके अन्य सब अवयवों का कथन है। जिस प्रकार, सद्वैद्य निदानपूर्वक रोगों के जोड़-जोड़ में से रोग का नाश करता है, वैसे ही ज्ञानी पुरुष निदिध्यासनपूर्वक आत्मिक दोषों को मिटाकर प्रसन्नचित्त होता है ॥२३॥
Footnote: १७-२३−व्याख्याताः-अ० २।३३।१-७ ॥