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स्वर॑न्ति त्वा सु॒ते नरो॒ वसो॑ निरे॒क उ॒क्थिनः॑। क॒दा सु॒तं तृ॑षा॒ण ओक॒ आ ग॑म॒ इन्द्र॑ स्व॒ब्दीव॒ वंस॑गः ॥

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स्वरन्ति । त्वा । सुते । नर:। वसो इति । निरेके । उक्थिन: ॥ कदा । सृतम् । तृषाण: । ओक: । आ । गम: । इन्द्र । स्वब्दीऽइव । वंसग: ॥५७.१५॥

Atharvaveda » Kand:20» Sukta:57» Paryayah:0» Mantra:15


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PANDIT KSHEMKARANDAS TRIVEDI

मन्त्र १४-१६ परमात्मा की उपासना का उपदेश।

Word-Meaning: - (वसो) हे श्रेष्ठ ! [परमात्मन्] (उक्थिनः) कहने योग्य वचनोंवाले (नरः) नर [नेता लोग] (निरेके) निःशङ्क स्थान में (सुते) सार पदार्थ के निमित्त (त्वा) तुझको (स्वरन्ति) पुकारते हैं−(इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मन्] (कदा) कब (तृषाणः) प्यासे [के समान] तू (सुतम्) पुत्र को (ओकः) घर में (आ गमः) प्राप्त होगा, (स्वब्दी इव) जैसे सुन्दर जल देनेवाला मेघ (वंसगः) सेवनीय पदार्थों का प्राप्त करानेवाला [होता है] ॥१॥
Connotation: - जब मनुष्य सार पदार्थ पाने के लिये परमात्मा की भक्ति निर्भय होकर करता है, परमात्मा उसको इस प्रकार चाहता है, जैसे प्यासा जल को, और इस प्रकार उसका उपकार करता है, जैसे सूखा के पीछे मेह आनन्द देता है ॥१॥
Footnote: १४-१६। एते मन्त्रा व्याख्याताः-अ० २०।३।१-३ ॥