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इ॒दं जना॒ उप॑ श्रुत॒ नरा॒शंस॒ स्तवि॑ष्यते। ष॒ष्टिं स॒हस्रा॑ नव॒तिं च॑ कौरम॒ आ रु॒शमे॑षु दद्महे ॥

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इदम् । जना: । उप । श्रुत । नराशंस: । स्तविष्यते ॥ षष्टिम् । सहस्रा । नवतिम् । च । कौरम । आ । रुशमेषु । दद्महे ॥१२७.१॥

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PANDIT KSHEMKARANDAS TRIVEDI

राजा के धर्म का उपदेश।

Word-Meaning: - (जनाः) हे मनुष्यो ! (इदम्) यह (उप) आदर से (श्रुत) सुनो, [कि] (नराशंसः) मनुष्यों में प्रशंसावाला पुरुष (स्तविष्यते) बड़ाई किया जावेगा। (कौरम) हे पृथिवी पर रमण करनेवाले राजन् ! (षष्टिम् सहस्रा) साठ सहस्र (च) और (नवतिम्) नब्बे [अर्थात् अनेक दानों] को (रुशमेषु) हिंसकों के फैंकनेवाले वीरों के बीच (आ दद्महे) हम पाते हैं ॥१॥
Connotation: - उत्तम कर्म करनेवाला मनुष्य संसार में सदा बड़ाई पाता है, यह विचारकर राजा कर्मकुशल वीरों के बीच आदर करके सुपात्रों को अनेक दान देवे ॥१॥
Footnote: [सूचना−सूक्त १३६ के मन्त्र १ तथा ४ को छोड़कर, यह कुन्तापसूक्त १२७-१३६ ऋग्वेद आदि अन्य वेदों में नहीं है। हम स्वामी विश्वेश्वरानन्द नित्यानन्द कृत पदसूची से पदपाठ को संग्रह करके और कुछ शोधकर लिखते हैं। आगे सूचना अथर्व० २०।३४।१२, १६, १७ ४८।१-३ ४९।१-३ भी देखो ॥](कुन्तापसूक्तानि) का अर्थ पाप वा दुःख के भस्म करनेवाले सूक्त अर्थात् वेदमन्त्रों के समुदाय हैं ॥ [कुन्तापसूक्तानि−कुङ् आर्तस्वरे-डुप्रत्ययः+तप दाहे-घञ्, अलुक्-समासः+सु+वच कथने-क्त। कोः पापस्य दुःखस्य तापकानि दाहकानि सूक्तानि सुन्दरकथनानि वेदमन्त्रसमुदायाः-इत्यर्थः]॥ १−(इदम्) वक्ष्यमाणम् (जनाः) हे मनुष्याः (उप) आदरे (श्रुत) शृणुत (नराशंसः) अथ० ।२७।३। नरेषु आशंसा यस्य सः। मनुष्येषु प्रशंसनीयः (स्तविष्यते) स्तुत्यो भविष्यति (षष्टिं सहस्रा नवतिं च) बहुसंख्याकानि दानानि-इत्यर्थः (कौरम) कौ+रमु क्रीडायाम्-अच्, अलुक्समासः। हे कौ पृथिव्यां रमणशील राजन् (रुशमेषु) अथ० २०।२०।२। रुशमाणां हिंसकानां प्रक्षेपकेषु वीरेषु (आ दद्महे) वयं गृह्णीमः ॥