पुन॒रेहि॑ वृषाकपे सुवि॒ता क॑ल्पयावहै। य ए॒ष स्व॑प्न॒नंश॒नोऽस्त॒मेषि॑ प॒था पुन॒र्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
Pad Path
पुन: । आ । इहि । वृषाकपे । सुविता । कल्पयावहै ॥ य: । एष: । स्वप्नऽनंशन: । अस्तम् । एषि । पथा । पुन: । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर ॥१२६.२१॥
Atharvaveda » Kand:20» Sukta:126» Paryayah:0» Mantra:21
Reads times
PANDIT KSHEMKARANDAS TRIVEDI
गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।
Word-Meaning: - (वृषाकपे) हे वृषाकपि ! [बलवान् चेष्टा करानेवाले जीवात्मा] तू (पुनः) फिर (आ इहि) आ, (सुविता) ऐश्वर्य कर्मों को (कल्पयावहै) हम दोनों [तू और मैं] विचार कर करें, (यः) जो (एषः) यह तू (स्वप्ननंशनः) स्वप्न नाश करनेवाला [आलस्य छुड़ानेवाला] है, सो तू (पथा) मार्ग से [सन्मार्ग से] (पुनः) फिर (अस्तम्) घर (एषि) पहुँचता है, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥२१॥
Connotation: - मनुष्य अपने गिरे हुए आत्मा को सावधानी से ठिकाने पर लाकर ऐश्वर्य बढ़ाता रहे ॥२१॥
Footnote: २१−(पुनः) (आ इहि) आगच्छ (वृषाकपे) म० १। हे बलवन् चेष्टयितर्जीवात्मन् (सुविता) प्र० २९।१। ऐश्वर्यकर्माणि (कल्पयावहै) त्वमहं चावामुच्चौ पर्यालोचनं कुर्याव (वः) (एष) स त्वम् (स्वप्ननंशनः) णश अदर्शने नाशे च-ल्युट्। मस्जिनशोर्झलि। पा० ७।१।६०। इति नुम्। स्वप्नस्यालस्यस्य नाशयिता (अन्तम्) गृहम् (एषि) गच्छसि (पथा) सन्मार्गेण (पुनः)। अन्यद् गतम् ॥