Go To Mantra

परा॒ हीन्द्र॒ धाव॑सि वृ॒षाक॑पे॒रति॒ व्यथिः॑। नो अह॒ प्र वि॑न्दस्य॒न्यत्र॒ सोम॑पीतये॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

Mantra Audio
Pad Path

परा । हि। इन्द्र । धावसि । वृषाकपे: । अति । व्यथि: ॥ नो इति । अह । प्र । विन्दसि । अन्यत्र । सोमऽपीतये । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर: ॥१२६.२॥

Atharvaveda » Kand:20» Sukta:126» Paryayah:0» Mantra:2


Reads times

PANDIT KSHEMKARANDAS TRIVEDI

गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।

Word-Meaning: - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले मनुष्य] तू (हि) ही (वृषाकपेः) वृषाकपि [बलवान् चेष्टा करानेवाले जीवात्मा] से (अति) अत्यन्त (व्यथिः) व्याकुल होकर (परा) दूर (धावसि) दौड़ता है। (अन्यत्र) [अपने आत्मा से] दूसरे [प्राणी] में (सोमपीतये) सोम [तत्त्व रस] के पाने के लिये (नो अह) कभी नहीं (प्र विन्दसि) तू पाया जाता है, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥२॥
Connotation: - जो मनुष्य आत्मज्ञान के बिना कष्टों से व्याकुल होकर अपने सामर्थ्य को सींचकर काम करता है, वही तत्त्व मार्ग पर चलकर आप सुखी होता और सबको सुखी करता है ॥२॥
Footnote: २−(परा) दूरे (हि) अवधारणे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् मनुष्य (धावसि) शीघ्रं गच्छसि (वृषाकपेः) म० १। बलवच्चेष्टाकारकाज्जीवात्मनः (अति) अत्यन्तम् (व्यथिः) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। व्यथ भयसंचलनयोः-इन्। व्याकुलः (नो) नैव (अह) निश्चयेन (प्रः) (विन्दसि) लभसे। प्राप्यसे (अन्यत्र) स्वात्मनो भिन्ने (सोमपीतये) तत्त्वरसपानाय। अन्यत् पूर्ववत् ॥