उ॒भयं॑ शृ॒णव॑च्च न॒ इन्द्रो॑ अ॒र्वागि॒दं वचः॑। स॒त्राच्या॑ म॒घवा॒ सोम॑पीतये धि॒या शवि॑ष्ठ॒ आ ग॑मत् ॥
Pad Path
उभयम् । शृण्वत् । च । न: । इन्द्र: । अर्वाक् । इदम् । वच: ॥ सत्राच्या । मघऽवा । सोमऽपीतये । धिया । शविष्ठ: । आ । गमत् ॥११३.१॥
Atharvaveda » Kand:20» Sukta:113» Paryayah:0» Mantra:1
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PANDIT KSHEMKARANDAS TRIVEDI
राजा के धर्म का उपदेश।
Word-Meaning: - (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला राजा] (उभयम्) दो प्रकार से [शत्रुओं पर दण्ड और भक्तों पर अनुग्रह करने से] (नः) हमारे (इदम्) इस (अर्वाक्) वर्त्तमान (वचः) वचन को (च) निश्चय करके (शृणवत्) सुने, (मघवा) महाधनी और (शविष्ठः) महाबली [राजा] (सोमपीतये) सोम [तत्त्व रस] पीने के लिये (सत्राच्या) सत्य गतिवाली (धिया) बुद्धि के साथ (आ गमत्) आवे ॥१॥
Connotation: - राजा धन की पूर्णता और पराक्रम की उपयोगिता से शत्रुओं को मिटाकर और राजभक्तों को बढ़ाकर श्रेष्ठ कर्म करता रहे ॥१॥
Footnote: यह सूक्त ऋग्वेद में है-८।६१ [सायणभाष्य ०]।१-२ सामवेद-उ० ।१।१४ म० १ साम० पू० ३।१०।८ ॥ १−(उभयम्) द्विप्रकारं शत्रुनिग्रहं भक्तानुग्रहं च (शृणवत्) शृणुयात् (च) अवधारणे (नः) अस्माकम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् राजा (अर्वाक्) अभिमुखम् (इदम्) (वचः) वचनम् (सत्राच्या) सत्यगतिवत्या (मघवा) महाधनी (सोमपीतये) तत्त्वरसस्य पानाय (धिया) प्रज्ञया (शविष्ठः) अतिशयेन बलवान् (आ गमत्) आगच्छतु ॥