सुख की प्राप्ति का उपदेश।
Word-Meaning: - (अष्टाविंशानि) प्रत्येक अट्ठाइसवें [नक्षत्र] (शिवानि) कल्याणकारक और (शग्मानि) सुखदायक होकर (सह) मेल के साथ (मे) मुझ को (योगम्) प्राप्ति सामर्थ्य (भजन्तु) देवें। (योगम्) प्राप्ति सामर्थ्य को (च) और (क्षेमम्) रक्षा सामर्थ्य को [अर्थात् पान के सामर्थ्य के साथ रक्षा के सामर्थ्य को] (प्र पद्ये) मैं पाऊँ, और (क्षेमम्) रक्षा सामर्थ्य को (च) और (योगम्) प्राप्ति सामर्थ्य को [अर्थात् रक्षा के सामर्थ्य के साथ पाने के सामर्थ्य को] (प्र पद्ये) मैं पाऊँ, [और मुझे] (अहोरात्राभ्याम्) दोनों दिन-राति के लिये (नमः) अन्न (अस्तु) होवे ॥२॥
Connotation: - सूक्त ७ में कृत्तिकाओं से लेकर भरणियों तक अट्ठाईस नक्षत्र बताये हैं। यह मन्त्र कहता है कि वे नक्षत्र चन्द्रमा के मार्ग में चक्र बनाकर घूमते हैं। इसलिये जिस किसी एक नक्षत्र को ध्रुव मानकर गणना करें तो प्रत्येक अन्तिम नक्षत्र अट्ठाईसवाँ होता है, जैसे वेद में कृत्तिकाओं से लेकर भरणी, और लोक में अश्विनी से लेकर रेवती अट्ठाईसवाँ नक्षत्र हैं। मनुष्यों को योग्य है कि नक्षत्रों की कुचाल से जो दुर्भिक्ष, वायु की अशुद्धि आधिदैविक विपत्तियाँ पृथिवी पर सूझ पड़ें, उनके निवारण के लिये अन्न आदि पदार्थ प्राप्त करते रहें ॥२॥