सूर्यचन्द्र आदि के विषय का उपदेश।
Word-Meaning: - (सुपर्णः) सुन्दरपूर्त्ति करनेवाला (चन्द्रमाः) चन्द्रलोक (अप्सु अन्तः) [अपने] जलों के भीतर (दिवि) सूर्य के प्रकाश में (आ धावते) दौड़ता रहता है। (हिरण्यनेमयः) हेप्रकाशस्वरूप परमात्मा में सीमा रखनेवाले (विद्युतः) विविध प्रकाशमान [सब लोको !] (वः) तुम्हारे (पदम्) ठहराव को (न विन्दन्ति) वे [जिज्ञासु लोग] नहीं पातेहैं, (रोदसी) हे पृथिवी और सूर्य के समान स्त्री-पुरुषो ! (मे) मेरे (अस्य) इस [वचन] का (वित्तम्) तुम दोनों ज्ञान करो ॥८९॥
Connotation: - चन्द्रमा अपने मण्डलके समुद्रों पर सूर्य की किरणों के पड़ने से प्रकाशित होकर अपनी जलमय शीतलकिरणों द्वारा पृथिवी के पदार्थों को पुष्ट करता है, इस के अतिरिक्त परमात्मा कीअनन्त रचनाओं, अनन्त सूर्य पृथिवी आदि लोकों को जिज्ञासु लोग खोजते जाते हैं औरअन्त नहीं पाते। उस जगदीश्वर की महिमा को जानकर सब स्त्री-पुरुष अपना सामर्थ्यबढ़ावें ॥८९॥यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१।१०५।१ और सामवेद में पू० ५।३।९। औरपहिले दो पाद यजुर्वेद में हैं−३३।९० ॥ इति चतुर्थोऽनुवाकः ॥ इति चतुस्त्रिंशः प्रपाठकः ॥इत्यष्टादशंकाण्डम् ॥ इति श्रीमद्राजाधिराजप्रथितमहागुणमहिमश्रीसयाजीरावगायकवाड़ाधिष्ठितबड़ोदेपुरीगतश्रावणमासदक्षिणापरीक्षायाम् ऋक्सामाथर्ववेदभाष्येषुलब्धदक्षिणेन श्रीपण्डितक्षेमकरणदासत्रिवेदिना कृते अथर्ववेदभाष्ये अष्टादशंकाण्डं समाप्तम् ॥