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आ त्वा॑ग्नइधीमहि द्यु॒मन्तं॑ देवा॒जर॑म्। यद्घ॒ सा ते॒ पनी॑यसी स॒मिद्दी॒दय॑ति॒ द्यवि॑।इषं॑ स्तो॒तृभ्य॒ आ भ॑र ॥

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Pad Path

आ । त्वा । अग्ने । इधीमहि । द्युऽमन्तम् । देव । अजरम् । यत् । घ । सा । ते । पनीयसी । सम्ऽइत् । दीदयति । द्यवि । इषम् । स्तोतृऽभ्य: । आ । भर ॥ ४.८८॥

Atharvaveda » Kand:18» Sukta:4» Paryayah:0» Mantra:88


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PANDIT KSHEMKARANDAS TRIVEDI

परमात्मा की उपासना का उपदेश।

Word-Meaning: - (देव) हे आनन्दप्रद ! (अग्ने) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! (द्युमन्तम्) प्रकाशयुक्त (अजरम्) अजर [जरारहित, सदा बलवान्] (त्वा) तुझको (आ) सब ओर से [हृदय में] (इधीमहि) हमप्रकाशित करें। (यत्) जो (सा) वह (घ) निश्चय करके (ते) तेरी (पनीयसी) अतिप्रशंसनीय (समित्) चमक (द्यवि) चमकते हुए [सूर्य आदि में] (दीदयति) चमकती है। [उससे] (इषम्) इष्ट पदार्थ को (स्तोतृभ्यः) स्तुति करनेवालों के लिये (आ) सब ओरसे (भर) भर दे ॥८८॥
Connotation: - जो अजर-अमर जगदीश्वरसूर्य अग्नि आदि प्रकाशक पदार्थों का प्रकाशक है, उस प्रकाशस्वरूप को हृदय मेंधारण करके अपने नेत्रों को दिव्य बनावें और प्रत्येक वस्तु में उसकी ज्योति देखकर प्रत्येक वस्तु से इष्ट मनोरथ सिद्ध करें ॥८८॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेदमें है−५।६।४ और सामवेद में पू० ५।४।१। तथा उ० ३।२।२१ ॥
Footnote: ८८−(आ) समन्तात् (त्वा)त्वाम् (अग्ने) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् (इधीमहि) इन्धेर्लिङि रूपम्। दीपयेम (द्युमन्तम्) दीप्तिमन्तम् (देव) हे सुखप्रद (अजरम्) जरारहितम्। बलवन्तम् (यत्)विभक्तेर्लुक्। या (घ) निश्चयेन (सा) प्रसिद्धा (ते) तव (पनीयसी) पनतिःस्तुतिकर्मा। स्तुत्यतरा (समित्) सम्यग् दीप्तिः (दीदयति) दीप्यते (द्यवि)द्योतमाने सूर्यादौ (इषम्) इष्टं पदार्थम् (स्तोतृभ्यः) स्तावकेभ्यः (आ)समन्तात् (भर) धर ॥