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सर॑स्वति॒ यास॒रथं॑ य॒याथो॒क्थैः स्व॒धाभि॑र्देवि पि॒तृभि॒र्मद॑न्ती। स॑हस्रा॒र्घमि॒डोअत्र॑ भा॒गं रा॒यस्पोषं॒ यज॑मानाय धेहि ॥

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Pad Path

सरस्वत‍ि । या । सऽरथम् । ययाथ । उक्थै: । स्वधाभि: । देवि । पितृऽभि: । मदन्ती । सहस्रऽअर्घम् । इड: । अत्र । भागम् । राय: । पोषम् । यजमानाय । धेहि ॥४.४७॥

Atharvaveda » Kand:18» Sukta:4» Paryayah:0» Mantra:47


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PANDIT KSHEMKARANDAS TRIVEDI

सरस्वती के आवाहन का उपदेश।

Word-Meaning: - (सरस्वति) हे सरस्वती ! [विज्ञानवती वेदविद्या] (देवि) हे देवी ! [उत्तम गुणवाली] (या) जो तू (उक्थैः) वेदोक्त स्तोत्रों से (सरथम्) रमणीय गुणोंवाली होकर और (स्वधाभिः) आत्मधारणशक्तियों के सहित [विराजमान] (पितृभिः) पितरों [विज्ञानियों] के साथ (मदन्ती)तृप्त होती हुई (ययाथ) प्राप्त हुई है। सो तू (अत्र) यहाँ (इडः) विद्या के (सहस्रार्घम्) सहस्रों प्रकार पूजनीय (भागम्) भाग को और (रायः) धन का (पोषम्)वृद्धि को (यजमानाय) यजमान [विद्वानों के सत्कारी] के लिये (धेहि) दान कर ॥४७॥
Connotation: - आत्मविश्वासी विज्ञानीलोग वेदविद्या प्राप्त करके आनन्द भोगते हैं। सब मनुष्य विद्वानों के सत्सङ्ग सेवेदविद्या ग्रहण करके धन आदि की वृद्धि करें ॥४७॥
Footnote: ४५-४७−मन्त्राव्याख्याताः-अ० १८।१।४१-४३ ॥